अलंकार किसे कहते हैं।

अलंकार  शब्द जब  भी हम सुनते हैं, हमारे मन में अलग सी छवि बनती है कि जैसे आकर्षक कुछ हो, परन्तु जब यही बात हमारे हिंदी व्याकरण में यही पूछा जाए कि अलंकार किसे कहते हैं, अलंकार की परिभाषा क्या है ? 

तो बात थोड़ी भिन्न हो जाती है , वहां हमें अलंकार की वास्तविक परिभाषा देनी होती है जिसकी चर्चा हम आज करने जा रहे हैं। तो चलिए थोड़ा अलंकार के इतिहास को जानते हैं।  

दरअसल मानव सौन्दर्योपसक है। उसकी इस प्रवृति ने ही अलंकारों को जन्म दिया। शरीर की सुंदरता को बढ़ाने के लिए जिस प्रकार मनुष्य ने भिन्न-भिन्न प्रकार के आभूषणों का प्रयोग किया उसी प्रकार उसने भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों की योजना की।

काव्य में अलंकारों का वही स्थान है जो शरीर के लिए लौकिक आभूषणों का। जिस प्रकार आभूषण साक्षात् सम्बन्ध से शरीर की शोभा बढ़ाते हैं और साथ ही साथ आत्मा को भी प्रफुल्लित करते हैं 

वैसे ही काव्य के अलंकार भी साक्षात् सम्बन्ध से काव्य के शरीर शब्द और अर्थ को अलंकृत करते हैं तथा परम्परा-सम्बन्ध से काव्य की आत्मा को पुष्ट करते हैं। 

"अलंकार किसे कहते हैं" writen on blue designed background


अलंकार किसे कहते हैं ?

दण्डी ने कहा है :- कव्यशोभाकरान् घर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते अर्थात् शब्द और काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को 'अलंकार' कहते हैं। 

अलंकार शब्द की रचना अल तथा कृ धातु के योग से हुई है। 'अलंकार' का अर्थ है :- सजावट। 

अलंकार की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जा सकती है- अलंकरोति इति अलंकारः। अर्थात् जो विभूषित करता हो वह अलंकार है। अथवा अलक्रियते अनेन इति अलंकारः।या अन्य शब्दों में कहे तो जिसके द्वारा किसी की शोभा होती है, वह अलंकार है।


अलंकार के भेद 

हिंदी व्याकरण के अनुसार अलंकार तीन प्रकार के हैं- 

(1) शब्दालंकार (2) अर्थालंकार और (3) उभयालंकार 


शब्दालंकार किसे कहते हैं  ?

जो अलंकार शब्द पर आश्रित हो, उसे 'शब्दालंकार' कहते हैं। जहाँ शब्द के कारण रमणीयता हो, उन शब्दों के स्थान पर अन्य शब्द का प्रयोग कर देने पर रमणीयता न रहे, वहाँ शब्दालंकार है। 

उदाहरणार्थ 'बंदउँ गुरुपद-पदुम-परागा' को यदि 'बंदउँ गुरुपद-कमल-परागा' कर दें।, यानी 'पदुम' की जगह 'कमल' कर दें तो अर्थ ज्यों का त्यों रहता है, पर कमल के पर्याय 'पदुम' के रहने से पाठ में 'पद' के सान्निध्य से जो छेकानुप्रास होता है वह अन्य पाठ में नष्ट हो जाता है। 

अत: छेकानुप्रास में जो शब्दालंकार है, उसके निर्वाह में 'पदुम' शब्द की स्थिति अनिवार्य है। कमल या जलज या अन्य पर्याय से काम नहीं चलेगा। 

अर्थ वही रहने पर भी शब्द-भेद से जो अलंकार की स्थिति बिगड़ जाती है, उसे शब्दालंकार नहीं कहेंगे। 


अर्थालंकार किसे कहते हैं  

जो अलंकार अर्थ पर आश्रित हो उसे अर्थालंकार कहते हैं।  अर्थात जहाँ अर्थ के कारण रमणीयता हो, शब्दों के बदल देने पर भी रमणीयता बनी रहे, वहाँ अर्थालंकार होता है। 

उदाहरणार्थ 'बंदउँ गुरुपद-पदम-परागा' में रूपक अलंकार है। यदि 'पदुम' शब्द के बदले 'कमल' शब्द का प्रयोग कर भी दें तो पद-कमल में रूपक अव्याहत रहता है उसमें कोई अन्तर नहीं आता, क्योंकि 'पदुम' और 'कमल' का अर्थ एक ही रहता है। यहाँ अलंकार अर्थ के अधीन है। अत: रूपक को अर्थालंकार कहेंगे।


उभयालंकार किसे कहते हैं 

जो अलंकार शब्द और अर्थ- दोनों पर आश्रित हो, उसे 'उभयालंकार' कहते हैं।  अर्थात जहाँ शब्द और अर्थ- दोनों के कारण रमणीयता हो वहाँ उभयालंकार होता है। 

उभयालंकार की संख्या सबसे कम है। शब्दालंकार की उससे अधिक और अर्थालंकार की संख्या सबसे अधिक है।

यह तो हमने संछेप में जाना की आखिर तीनो अलंकार से आप समझ सकते हैं , अब हम तीनो अलंकारों के बारे में विस्तार से जानने का प्रयास करेंगे। 


शब्दालंकार


 अलंकार किसे कहते हैं एवं इसके भेदों के नामों को तो हमने जान लिया परन्तु शब्दालंकार को विस्तार से जानने के लिए हमें इनके अंतर्गत निहित अलंकारों को जानना बहुत आवश्यक होता है। ...

अनुप्रास अलंकार  क्या है ?

व्यंजन वर्णों की आवृत्ति को 'अनुप्रास' कहते हैं। (वर्णसाम्यमनुप्रास मम्मट: काव्य-प्रकाश)। अनुप्रास का अर्थ है- अनु बार-बार, प्र= प्रकृष्टतया, आस होना। इससे स्पष्ट है कि अनुप्रास में एक ही व्यंजनवर्ण को अनेक बार दुहराया जाता है।

उदाहरणार्थ देखें सठ सुधरहिं सत संगति पाई। यहाँ 'स' व्यंजनवर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है। अतः यह उदाहरण अनुप्रास के अन्तर्गत है। 

श्लेष अलंकार  क्या है ?

श्लिष्ट मदों से अनेक अर्थों का अभिधान होने पर 'श्लेष' होता है (श्लिष्टै: पंदैरनेकार्थाभिधाने दृष्यते- विश्वनाथ : साहित्यदर्पण)।

श्लेष का अर्थ है- मिला हुआ। इस अलंकार में एक शब्द  के  एक से अधिक अर्थ होते हैं।  

श्लेष के दो भेद हैं : 1. अभंग श्लेष और 2. सभंग श्लेष ।


    •  1. अभंग श्लेष- अभंग श्लेष में शब्दों को बिना खण्डित किये अनेक अर्थ निकलते हैं। उदाहरणार्थ देखें- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुस, चून॥ उक्त उदाहरण में 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। पानी के तीन अर्थ हैं- कान्ति, सम्मान और जल। 'पानी' शब्द को बिना खण्डित किये, उसका अर्थ निकाला गया। अतः यहाँ 'अभंग श्लेष अलंकार है।

    • 2. सभंग श्लेष- सभंग श्लेष में शब्दों को खण्डित करना आवश्यक हो जाता है। उदाहरणार्थ देखें-सखर सुकोमल मंजु, दोष-रहित दूषण सहित ।
      उक्त उदाहरण में 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ सखर को खण्डित करके किया गया है। अतः यहाँ 'सभंग श्लेष' है। 


यमक अलंकार  किसे कहते हैं ?

अर्थ के होने पर भिन्न-भिन्न अर्थवाले स्वर- व्यंजन-समूह की उसी क्रम से आवृत्ति को 'यमक' कहते हैं।

'साहित्यदर्पण' के प्रणेता विश्वनाथ की परिभाषा है 

सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यंजनसंहतेः

क्रमेण तेनैवाऽऽवृत्तिर्यमकं विनिगद्यते ।।

'यमक' का अर्थ है- दो। इस अलंकार में भिन्न अर्थवाले एक ही आकार के वर्ण-समूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है।

उदाहरणार्थ देखें कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाइ। उहि खाए बौरात नर, इह पाए बौराइ ।।

उक्त उदाहरण में 'कनक' शब्द दो बार आया है। दोनों शब्द का अर्थ अलग-अलग है। पहले 'कनकं' का अर्थ है-'धतूरा' और दूसरे का अर्थ है-'सोना' । अतः 'कनक' में 'यमक' अलंकार स्पष्ट है।


वक्रोक्ति अलंकार क्या है ?

 जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उ न्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ 'वक्रोक्ति' अलंकार होता है। साहित्यदर्पण' के प्रणेता आचार्य विश्वनाथ का कथन है

अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यमन्यथा योजयेद्यदि । अन्य: श्लेषेण काक्वा वा सा वक्रोक्तिस्ततो द्विधा ।।

'वक्रोक्ति' का अर्थ है-टेड़ी उक्ति। वक्ता (कहने वाले) का अर्थ कुछ होता है, पर श्रोता (सुनने वाला) उससे कुछ दूसरा ही अर्थ निकाल लेता है।

 वक्रोक्ति के दो भेद हैं- 1. श्लेष वक्रोक्ति और 2. काकु वक्रोक्ति।


    • 1. श्लेष वक्रोक्ति :- जो वक्रोक्ति श्लिष्ट पदों के कारण हो, उसे 'श्लेष वक्रोक्ति' कहते हैं। उदाहरणार्थ देखें- एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है।  उसने कहा, अपर कैसा? वह तो उड़ गया सपर है।। ने नूरजहाँ से पूछा कि 'अपर' यानी दूसरा कबूतर कहाँ है? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया-'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर हीन नहीं था, बल्कि परवाला था।इसीलिए तो उड़ गया।
      उक्त उदाहरण में वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भिन्न अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है। 

    • 2. काकु वक्रोक्ति :- जो वक्रोक्ति काकू यानी ध्वनि विकृति के कारण होती है, उसे 'काकु वक्रोक्ति कहते हैं।  उदाहरणार्थ देखें- लिखन बैठि जाकि सबिहि, गहि गहि गरब गरूर।  भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर।। 
      उक्त उदाहरण में काकु (ध्वनि-विकृति) के कारण 'भए न केते' ( कितने न हुए) का अर्थ 'सभी हो गए' हो जाता है।


अर्थालंकार

जिस प्रकार कुछ महत्वपूर्ण पदों के मदद से हमने शब्दालंकार के तहत निहित अलंकारों  को बेहतर ढंग से जानने का प्रयास किया उसी प्रकार, अर्थालंकार को भी बेहतर ढंग से जानने के लिए हमें अंतर्गत निहित  कुछ महत्वपूर्ण अलंकारों का विश्लेषण जानना अति आवश्यक है, तो चलिए अर्थालंकार के अंतगर्त आने वाले अलंकरों  को जानते हैं। 

उपमा किसे कहते हैं

जहाँ दो भिन्न पदार्थों में धर्म की समानता का वर्णन हो, उसे 'उपमा' अलंकार कहते हैं।

काव्यप्रकाशकार मम्मट की परिभाषा है- साधर्म्यमुपमा भेदे । 

    • उपमा के चार अंग हैं- 
    • 1. उपमेय (जिसकी उपमा की जाय) 
    • 2. उपमान (जिससे उपमा दी जाय) 
    • 3. वाचक (समता दिखाने वाले शब्द, जैसे- सम, सा, ज्यों, समान, सदृश) और 
    • 4. साधारण धर्म (समान गुण, जैसे- सुन्दर, विशाल आदि) ।

उदाहरणार्थ देखें- मधुकर सरिस सन्त गुनग्राही । उक्त उदाहरण में 'सन्त' उपमेय, मधुकर' उपमान, 'सरिस' वाचक तथा 'गुनग्राही' साधारण धर्म है। कवि ने सन्त और मधुकर इन दो भिन्न पदार्थों में गुणग्राहकता की समता प्रदर्शित की है।

अतः उक्त उदाहरण 'उपमा' अलंकार के अन्तर्गत है। 


उत्प्रेक्षा अलंकार  किसे कहते हैं

उपमेय में उपमान की संभावना को 'उत्प्रेक्षा अलंकार कहते हैं।

काव्यप्रकाशकार मम्मट की परिभाषा है- सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्।

उत्प्रेक्षा का अर्थ है- किसी वस्तु को संभावित रूप में देखना। उपमेय में उपमान को कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को 'उत्प्रेक्षा' कहते हैं।

उदाहरणार्थ देखें- फूले कास सकल महि छाई। जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई || 

उक्त उदाहरण में वर्षा ऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् ऋतु में कास के खिले हुए फूल ऐसे प्रतीत होते है मानो वर्षा ऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में वर्षा ऋतु के बुढ़ापे (उपमान) की संभावना की के गयी है। अतः उक्त उदाहरण में 'उत्प्रेक्षा' अलंकार है। 


रूपक अलंकार किसे कहते हैं ?

रूपक- उपमान और उपमेय के अभेद को 'रूपक' अलंकार कहते हैं ।

काव्यप्रकाशकार मम्मट की परिभाषा है तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः ।

रूपक में एक वस्तु पर दूसरी वस्तु इस प्रकार रखी जाती है कि भेद ही न मालूम हो।

उदाहरणार्थ देखें

वंदौं गुरुपद-पदुम-परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'गुरुपद' पर 'पदुम' यानी कमल का आरोप किया गया है। गुरुपद को 'कमल के समान' न कह कर 'गुरुपद' ही कमल कह दिया गया है।

अतः उक्त उदाहरण में रूपक अलंकार है।


भ्रांतिमान अलंकार  किसे कहते हैं

यदि सादृश्य के कारण किसी वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का ज्ञान हो तो उसे 'भ्रान्तिमान्' कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ की परिभाषा है

•साम्यादतस्मिंस्तद्बुद्धिर्भ्रान्तिमान् प्रतिभोत्थिता।

वस्तुतः दो वस्तुओं में इतना सादृश्य रहता है कि स्वाभाविक रूप से भ्रम उत्पन्न हो जाता है, एक वस्तु दूसरी वस्तु समझ ली जाती है।

उदाहरणार्थ देखें- पायें महावर दैन को, नाइन बैठी आय। फिरि-फिरि जानि महावरी, ऐंडी मींडति जाय।।

नाइन नायिका की एडी को अतिशय लाली के कारण महावर की गोली समझकर बारम्बार उसी को यानी एड़ी को मलती जाती है। अतः उक्त उदाहरण में 'भ्रान्तिमान्' अलंकार है। 


प्रतीप अलंकार  किसे कहते हैं

प्रतीप - प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना देना प्रतीप' कहलाता है।

साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने 'प्रतीप' की परिभाषा दी है

प्रसिद्धस्योपमानस्योपमेयत्वप्रकल्पनम्।

निष्फलत्वाभिधानं वा प्रतीपमिति कथ्यते ।।

'प्रतीप' का अर्थ है- उलटा। मुख के लिए प्रसिद्ध उपमान- चाँद है। यदि उपमान- उपमेय बनाकर मुख से समता दिखायी जाय तो 'प्रतीप' अलंकार हो जायेगा।

उदाहरणार्थ देखें :- बिदा किये बहु विनय करि, फिरे पाइ मनकाम उतरि नहाये जमुन-जल, जो सरीर समस्याम॥

कवि प्रसिद्धि है कि श्यामल शरीर की उपमा यमुना के नीले जल से दी जाती है, पर उक्त उदाहरण में श्रीराम के श्यामल शरीर के समान यमुना का जल बताया गया है। अतः उक्त उदाहरण में 'प्रतीप' अलंकार है।


मालोपमा अलंकार किसे कहते है ?

जहाँ एक उपमेय के अनेक उपमान हों, वहाँ 'मालोपमा' नामक अलंकार होता है। (मालोपमा यदेकस्योपमानं बहु दृश्यते विश्वनाथ: साहित्यदर्पण) । मालोपमा = माला+उपमा

अर्थात् जहाँ उपमा की माला बन जाए। उदाहरणार्थ देखें :-

 सिंहनी सी काननों में, योगिनी-सी शैलों में, शफरी-सी जल में, विहंगिनी-सी व्योम में, जाती अभी और उन्हें खोजकर लाती मैं।


एक यशोधरा (उपमेय) के लिए चार उपमान प्रस्तुत किये गये हैं-

1. सिंहनी 2. योगिनी 3. शफरी और 4. विहंगिनी। 

यहाँ उपमा की माला बन गयी है। अतः उक्त उदाहरण में 'मालोपमा' अलंकार हैं।


अतिशयोक्ति अलंकार किसे कहते है ?

उपमेय को छिपाकर उपमान के साथ अभेद-स्थापना कराना 'अतिशयोक्ति' अलंकार है (सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्तिर्निगद्यते-विश्वनाथ: साहित्यदर्पण) 'अतिशयोक्ति का अर्थ है अतिशय बढी चढ़ी, ठक्ति कथन। उदाहरणार्थ देखें

राम सीय सिर सेंदुर देहीं सोभा कहि न जाति विधि केही अरुन पराग जलजु भरि नीके। ससिहि भूष अहि लोभ अभी के 

श्रीराम के हाथ के लिए कमल, सोता की मांग के लिए अरुण पराग, मुख के लिए चन्द्रमा तथा सौन्दर्य कि लिए अमृत का प्रयोग किया गया है। कमल, अरुण, पराग, चन्द्र तथा अमृत ने क्रमश: हाथ, सिन्दुर, मुख एवं सौन्दर्य को छिपा लिया है। अतः उक्त उदाहरण में 'अतिशयोक्ति' अलंकार है।


दीपक अलंकार किसे कहते हैं ?

जहाँ प्रस्तुत (उपमेय) और अप्रस्तुत (उपमान) रूप वस्तुओं के क्रिया-रूप धर्म का एक बार ग्रहण किया जाता है, वहाँ दीपक 'अलंकार' होता है (प्रस्तुताप्रस्तुतयोदींपर्क तु निगद्यते विश्वनाथः साहित्यदर्पण) । उदाहरणार्थ देखें

चितवन भौंह कमान, गहरचना बरुनी अलक   तरुनि, तुरंगम, तान, आधु बँकाई ही बढ़।

उक्त उदाहरण में कोई सखी नायिका को सीधी-सादी न बने रहने अपने अन्दर वक्रता लाने की शिक्षा दे रही है- प्रस्तुत (उपमेय) तरुणी के साथ उन सारी अप्रस्तुत (उपमान) वस्तुओं के भी नाम गिना जाती है, जिनका महत्त्व टेढेपन से बढ़ता है।

चितवन, भौंह, कमान, गढ़ का निर्माण, पलक, केश, तरुणी, घोड़ा और तान (संगीत की) इनका मूल्य बँकाई (वक्रता) से ही बढ़ता है। यहाँ केवल तरुणी प्रस्तुत (उपमेय) और शेष अप्रस्तुत (उपमान) हैं। प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का, 'वक्रता' इस एक गुण से सम्बन्ध कथन होने से 'दीपक' अलंकार है। 


विभावना अलंकार किसे कहते हैं ?

कारण के अभाव में जहाँ कार्योत्पत्ति का वर्णन किया गया हो, वहाँ 'विभावना' नामक अलंकार होता है। (विभावना विना हेतु कार्योत्पत्तिर्यदुच्यते विश्वनाथ: साहित्यदर्पण)। 'विभावना' का अर्थ है विशिष्ट कल्पना कारण के बिना कोई कार्य का होना विशिष्ट कल्पना नहीं तो और क्या? उदाहरणार्थ देखें

बिनु पद चलै सुनै बिनु कोना। कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।। आनन-रहित सकल रसभोगी। विनु बानी बकता बड़ जोगी

उक्त उदाहरण में पैर (कारण) के अभाव में चलना (कार्य), हाथ (कारण) के अभाव में करना (कार्य), मुख (कारण) के अभाव में रसभोग (कार्य) आदि का वर्णन किया गया है। अत: 'विभावना" अलंकार है।


दृष्टान्त अलंकार किसे कहते हैं  

जहाँ उपमेय-उपमान में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव का वर्णन किया गया हो वहाँ 'दृष्टान्त' अलंकार होता है। (दृष्यन्तस्तु सधर्मस्य वस्तुनः प्रतिबिम्बनम् विश्वनाथः साहित्य दर्पण) ।

दृष्टान्त में दो स्वतन्त्र वाक्य रहते हैं एक उपमेय वाक्य और दूसरा उपमान वाक्य दोनों वाक्यों में एक ही बात को भिन्न शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। उदाहरणार्थ देखें

काटेहिं पै कदली फरै कोटि जतन कोठ साँच

विनय न मान खगेस सुन डाटेहि पर नव नीच।। '

काटने पर कदली (केला) का फलना' तथा ' डाँटने पर नीच का झुकना एक ही विचार को भिन्न शब्दों में अभिव्यक्ति किया गया है। अतः उक्त उदाहरण में 'दृष्टान्त' अलंकार है। 


निदर्शना अलंकार किसे कहते हैं ? 

जहाँ वस्तुओं का पारस्परिक सम्बन्ध संभव या असंभव होकर उनमें सादृश्य का बोध करावे, उसे 'निदर्शना' अलंकार कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ की परिभाषा है

संभवन् वस्तुसम्बन्धोऽसम्भवन् वाऽपि कुत्रचित् । यत्र विम्बानुविम्वत्वं बोधयेत् सा निदर्शना ||

उदाहरणार्थ देखें

सुनु खगेस हरि भगति बिहाई जे सुख चाहहि आन उपाई।

ते सठ महासिंधु बिनु तरनी पैरि पार चाहहिं जड़ करनी। 

महासिन्धु का तैर कर पार जाना जिस प्रकार असंभव है उसी प्रकार हरि भक्ति के बिना सुख पाना भी असंभव है।उक्त उदाहरण में दोनों वाक्यों का सादृश्य दिखाया गया है। अत: 'निदर्शना' अलंकार है। 


अर्थान्तरन्यास अलंकार किसे कहते हैं 

जहाँ सामान्य का विशेष से समर्थन हो, उसे 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार कहते हैं। (सामान्येन विशेषस्य विशेषेण सामान्यस्य वा समर्थनम् अर्थान्तरन्यासः- जगनाथः रसगंगाधर) ...उदाहरणार्थ देखें 

टेड़ जानि सब वंदै काहू वक्र चन्द्रमहि ग्रसै न राहू।

टेड़े की सब कोई वन्दना करता है यह सामान्य कथन है। इसका समर्थन इस विशेष कथन से किया जाता है कि टेड़े चाँद को राहु भी नहीं ग्रसता। अतः उक्त उदाहरण में 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार है।


अपह्नुति अलंकार किसे कहते हैं ?

उपमेय का निषेध करके यदि उपमान का स्थापन किया जाय तो अपह्नुति अलंकार होता है। अपहृति का अर्थ है-छिपाना। दोनों वाक्यों में एक ही बात को भिन्न शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। यदि कोई कहे कि 'यह मुख नहीं, चन्द्र है तो अपहृति हो जायेंगी।

    • अपह्नुति के दो भेद हैं :-  1. शाब्दी अपह्नुति और 2. आर्थी अपह्नुति।

    • 1. शाब्दी अपह्नुति - जहाँ शब्दशः निषेध किया जाय वहाँ 'शाब्दी अपहृति होती है। 
    • 2. आर्थी अपह्नुति - जहाँ छल, बहाना आदि के द्वारा निषेध किया जाय यहाँ आर्थी अपहृति' होती है। 

उदाहरण देखें

नहिं पलास के पुहुप ये हैं ये जरत अंगार।

यहाँ 'पलाश पुष्प' का निषेध कर गार की स्थापना की गयी है। अतः उक्त उदाहरण में 'अपहुति' अलंकार है।


अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार किसे कहते हैं ?

 जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) के वर्णन में प्रस्तुत (उपमेय) की प्रतीति हो, उसे अप्रस्तुतप्रशंसा' अलंकार कहते हैं (अप्रस्तुतात् प्रस्तुतप्रतीतिः अप्रस्तुतप्रशंसा)। 'अप्रस्तुत प्रशंसा का अर्थ है- अप्रस्तुत (उपमान)-कथन। उदाहरणार्थ देखें

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ।

उसको क्या जो दन्तहीन, विष-रहित, विनीत, सरल हो।

यहाँ अप्रस्तुत (उपमान) सर्प के विशेष वर्णन से सामान्य अर्थ की प्रतीति होती है कि शक्तिशाली पुरुष को ही क्षमा शोभती है। अतः उक्त उदाहरण में 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलंकार है। 


काव्यलिंग अलंकार क्या है ?

 जहाँ वाक्यार्थ का या पदार्थ का (किसी वस्तु के प्रति) कारण रूप से कथन.. हो, उसे 'काव्यलिंग' अलंकार कहते हैं (हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतम्- विश्वनाथः साहित्यदर्पण) 'काव्यलिंग' का अर्थ है- काव्य का कारण (लिंग) । काव्य में ऐसा कारण जो की चमत्कारपूर्वक  आता है। 

स्याम- गौर किमि कहौं बखानी।

गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।

राम और लक्ष्मण के सौन्दर्य-वर्णन की असमर्थता का कारण वाणी का नयन-हीन और नयन का वाणी-हीन होना कहा गया है। जिन आँखों ने सौन्दर्य देखा, वे बोल नहीं सकतीं और जिस वाणी को बोलने की शक्ति है, उसने देखा नहीं। ऐसी स्थिति में सौन्दर्य का वर्णन हो तो. कैसे हो?


उभयालंकार

संकर अलंकार किसे कहते हैं 

नीर-क्षीर-न्याय से परस्पर मिश्रित अलंकार को 'संकर' अलंकार कहते हैं (क्षीर-नीर-न्यायेन तु संकर: रुय्यक अलंकारसर्वस्व ) । जैसे- नीर-क्षीर यानी पानी और दूध मिलकर एक हो जाते हैं वैसे ही 'संकर' अलंकार में कई अलंकार इस तरह मिल जाते हैं कि जिनका अलग करना संभव नहीं।

उदाहरणार्थ देखें

सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस परस कुधातु सुहाई।।

यहाँ 'पारस-परस' में अनुप्रास और यमक अलंकार है। उक्त दोनों अलंकार इस तरह मिले हैं कि अलग करना संभव नहीं है। अतः उक्त उदाहरण में 'संकर' अलंकार है। 


संसृष्टि अलंकार  किसे कहते हैं 

 तिल-तण्डुल न्याय से जहाँ परस्पर-निरपेक्ष अनेक अलंकारों की स्थिति हो, उसे 'संसृष्टि' अलंकार कहते हैं (एषां तिलतण्डुलन्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टि:-रुय्यकः अलंकारसर्वस्व) । जैसे- तिल और तण्डुल (चावल) मिल कर भी पृथक् दीख पड़ते हैं उसी प्रकार 'संसृष्टि' अलंकार में कई अलंकार मिले हुए रहते हैं, पर उनकी पहचान में किसी प्रकार की कठिनता का अनुभव नहीं होता। संसृष्टि' अलंकार में कई शब्दालंकार, कई अर्थालंकार या कई शब्दालंकार और अर्थालंकार एक साथ रह सकते हैं।

उदाहरणार्थ देखें

भूपति भवनु सुभायें सुहावा सुरपति सदनु न परतर पावा।

मनिमय रचित चारु चौवारे जनु रतिपति निज हाथ सँवारे ।।

यहाँ प्रथम दो चरणों में प्रतीप' अलंकार है तथा बाद के दो चरणों में उत्प्रेक्षा अलंकार है। अतः उक्त उदाहरण में 'प्रतीप अलंकार ' और उत्प्रेक्षा अलंकार की संसृष्टि है।


अंतिम शब्द 

अलंकार एक बड़ा टॉपिक है , और इसे अगर हम इसे तोड़ तोड़ कर समझने का प्रयास करें तो यह थोड़ा कठिन हो जाता है , हिंदी व्याकरण से सम्बंधित अन्य टॉपिक हमारे ब्लॉग पर जरूर पढ़ें , एवं आशा है इस आर्टिकल को पढ़ने के बाद आपके मन में अलंकार किसे कहते है नाम का प्रश्न नहीं आता होगा , चाहे वह कोई भी अलंकार हो। 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

© 2022 Blog Adda News All Rights Reversed