भाषा किसे कहते हैं

भाषा का प्रयोग तो सभी करते हैं, भाषा कई प्रकार के होते हैं क्या आपको पता है कि भाषा किसे कहते हैं ?

अब आप कहेंगे कि जो हम बोलते हैं वही तो भाषा है, अब इसमें इस सवाल का क्या तात्पर्य रह जाता है कि भाषा किसे कहते हैं

अगर नहीं पता तो सीधे-सीधे शब्दों में बता दीजिए ना हमें नहीं आता कि भाषा किसे कहते हैं 

दरअसल संस्कृत में पाणिनि द्वारा  कहा गया है - " भाष्यते भावो यया सा भाषा " अर्थात् भावाभिव्यक्ति  ( भाव के अभिव्यक्ति) के माध्यम को भाषा कहते हैं। 

 दरअसल 'भाषा' शब्द संस्कृत को 'भाष' धातु से निष्पन्न है।  जिसमें इसका अर्थ है- बोलना या कहना।  यह तो हो गया भाषा क्या है ?  पर आज हमें जानना है भाषा की परिभाषा,  यानी भाषा किसे कहते हैं।  

भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य विचारी की या भावों को बोलकर या लिखकर व्यक्त करता है। 

या यूं कहे तो भाषा अभिव्यक्ति का एक माध्यम है या भाषा ध्वनि शब्द वाक्य और अर्थ इत्यादि का अवयव है । 

अब आप एक नए शब्द ध्वनि को देखकर अचंभित जरूर हुए होंगे, तो घबराइए मत हम आपको भाषा के बारे में विस्तार से बताने से पहले यह बताएंगे कि ध्वनि किसे कहते हैं । 

ध्वनि किसे कहते हैं

कहा जाता है कि ध्वनि भाषा की सबसे छोटी इकाई है, जी हां यह वही है जिसे हम लोग आमतौर पर भाषा में वर्ण भी कहते हैं । 

वर्ण का अपना कोई अर्थ नहीं होता है, वर्णों के मेल अर्थात संयोग से जिस सार्थक वर्णन या ध्वनि समूह की दृष्टि होती है उसे हम शब्द कहते हैं । 

शब्द और अर्थ का घनिष्ठ संबंध है, शब्द अर्थ से पृथक नहीं रह सकता है । 

अर्थ के अभाव में कोई भी शब्द निरर्थक ध्वनियों अर्थात निरर्थक शब्दों का समूह मात्र रह जाता है । 

कामता प्रसाद गुरु के अनुसार 

" भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों तक भली-भांति प्रगट कर सकता है तथा दूसरों के विचारों को भी स्पष्ट रूप से समझ सकता है । "

" लिपि हुआ ध्वनि संकेत है जिसके द्वारा भाषा का प्रसार तथा संरक्षण संभव है"

हिंदी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है जबकि यूरोपीय भाषाओं को रोमन तथा ग्रीक लिपि में लिखा जाता है । 

भाषा वाक्य से स्वरूप ग्रहण करते हैं वाक्य शब्दों से रूप ग्रहण करते हैं, वाक्य शब्द, ध्वनि तथा अर्थ द्वारा भाषा के मासिक स्वरूप को सामने लाने का कार्य करता है । 

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संस्कृत व्याकरण में बात करें तो आप ऊपर दिए गए परिभाषा को आराम से लिख सकते हैं,  परंतु हिंदी व्याकरण में भाषा किसे कहते हैं यह जानना बहुत आवश्यक हो जाता है। 

भाषा क्या है ?

भाषा मानव जाति को मिला एक ऐसा वरदान है जिसके बिना मानव सभ्यता का विकास नहीं हो सकता। भाषा हमारे विचारों, भावों, संस्कारों, रीति-रिवाजों, प्रार्थना और ध्यान, सपनों में, संबंधों और संचार में सभी जगह विद्यमान है। Animals Name in Sanskrit

संचार-साधन और ज्ञान-भंडार होने के बावजूद यह चिंतन-मनन का साधन है और प्रसन्नता का स्रोत है। भाषा अतिरिक्त ऊर्जा बिखेरती है, दूसरों में जोश पैदा करती है। 

एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति अथवा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान का अंतरण करती है। भाषा मानव संबंधों को जोड़ती भी है और तोड़ती है। 

भाषा के बिना मनुष्य मात्र एक मूक प्राणी रह जाता है। इससे हम अपनी बात और मंतव्य का संप्रेषण दूसरों तक कर पाते हैं और इसी कारण हम अन्य प्राणियों से अलग हो जाते हैं। 

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भाषा सर्वव्यापी है, किंतु कई बार यह न केवल भाषाविदों के लिए गंभीर वस्तु होती है, वरन् दार्शनिकों, तर्कशास्त्रियों, मनोविज्ञानियों, विज्ञानियों, साहित्यिक आलोचकों आदि के लिए भी होती है। 

वस्तुतः भाषा एक बहुत ही जटिल मानव वस्तु है, इसलिए यह जानना आवश्यक है कि भाषा क्या है और इसका स्वरूप और प्रकृति क्या है। 

इसी के साथ हिन्दी भाषा के स्वरूप और इसके विकास के परिप्रेक्ष्य के बारे में जानकारी होना भी आवश्यक है।

सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य को परस्पर सर्वदा विचार विनिमय करना पड़ता है। कभी वह सिर हिलाने या संकेतों के माध्यम से अपने विचारों या भावों को अभिव्यक्त कर देता है तो कभी उसे ध्वनियों शब्दों एवं वाक्यों का सहारा लेना पड़ता है। 

इस प्रकार यह प्रमाणित है कि भाषा ही एक मात्र ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के भाव एवं मस्तिष्क के विचार दूसरे मनुष्यों के समक्ष प्रकट कर सकता है और इस प्रकार समाज में पारस्परिक जुड़ाव की स्थिति बनती है। 

यदि भाषा का प्रचलन न हुआ होता तो बहुत संभव है कि मनुष्य इतना भौतिक, वैज्ञानिक एवं आत्मिक विकास भी नहीं कर पाता। भाषा न होती तो मानव अपने सुख-दुःख का इजहार भी नहीं कर सकता।

 भाषा के अभाव में मनुष्य जाति अपने पूर्वजों के अनुभवों से लाभ नहीं उठा सकती।

भाषा शब्द संस्कृत के "भाष से व्युत्पन्न है। 'भाग' धातु से अर्थ ध्वनित होता है-प्रकट करना जिस माध्यम से हम अपने मन के नाव एवं मस्तिष्क के विचार बोलकर प्रकट करते हैं, उसे भाषा संज्ञा दी गई है। 

भाषा ही मनुष्य की पहचान होती है। उसके व्यापक स्वरूप के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि "भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते हैं और अपने भावों / विचारों को व्यक्त करते हैं।" 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन आता इसी कारण संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि आर्य भाषाओं के स्थान पर आज हिन्दी, राजस्थानी, रहता है। 

गुजराती, पंजाबी, सिंधी, बंगला, उड़िया, असमिया, मराठी आदि अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। भारत की राजभाषा हिन्दी स्वीकारी गई है।

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भाषा का अर्थ और परिभाषा

किसी भी वस्तु की परिभाषा उस वस्तु की अपनी प्रकृति और उसके अपने प्रयोजन पर आधारित होती है। 

भाषा की परिभाषा पर विचार करते हुए यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि भाषा केवल अपनी संरचना और प्रकृति में जटिल नहीं होती, वरन अपने प्रयोजन में भी बहुमुखी होती है। 

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यदि वह हमारी चिंतन प्रक्रिया का आधार है तो हमारी संप्रेषण प्रक्रिया का साधन भी है। इससे हमारे मानसिक व्यापार के साथ-साथ हमारा सामाजिक व्यापार भी होता है। 

इसी प्रकार संरचना के स्तर पर जहाँ भाषा अपनी विभिन्न इकाइयों का संश्लिष्ट रूप ग्रहण करती है, वहाँ वह उन सामाजिक स्थितियों से भी संबंध स्थापित करती है, जिनमें यह प्रयुक्त होती है। 

इसी कारण विभिन्न विद्वानों ने इसे विभिन्न रूपों में देखने और परिभाषित करने का प्रयास किया है। 

भाषा की संकल्पना और उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कई विद्वानों ने अपनी परिभाषाएँ दी हैं, किंतु प्रकार्य की दृष्टि से कोई सर्वमान्य और पर्याप्त सिद्ध परिभाषा की रचना नहीं हो पाई है। 

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इनमें से कुछ इस प्रकार है:

हेनरी स्वीट ने ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों के प्रकटीकरण को भाषा कहते हैं  ऐसा कहा है। 

बाबूराम सक्सेना के मतानुसार जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करता है, उसके समष्टि रूप को भाषा कहते हैं। 

बेंदे का कथन है कि भाषा मनुष्यों के बीच संचार व्यवहार के माध्यम के रूप में एक प्रतीक व्यवस्था है। 

इन परिभाषाओं से भाषा को ध्वनि के साथ जोड़ा गया है और उसमें भाषा को एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में माना गया है। 

विद्वान द्वय ब्लाक एवं ट्रेगर की परिभाषा काफी सीमा तक सार्थक और अधिक मान्य मानी गई है। उनके अनुसार भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज अपने विचार का आदान-प्रदान करता है। 

इस परिभाषा में ब्लाक एवं ट्रेगर ने ध्वनि प्रतीक, उनकी यादृच्छिकता, उनकी व्यवस्था और समाज जैसे चार पक्षों का उल्लेख किया है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से ये स्पष्ट होता है कि भाषा ध्वनिमूलक सार्थक और यादृच्छिक व्यवस्था है जिसके द्वारा मानव समाज अपने भाषा-भाषी समाज अपने भावों और विचारों का पारस्परिक आदान प्रदान करता है। 

यह व्यवस्था ध्वनियों तथा अर्थमूलक तत्वों के योग से संबद्ध है जो विचार-विमर्श के लिए सार्थक भूमिका निभाती है। भाषा के इन मूल तत्वों का विवेचन कर भाषा के स्वरूप और प्रकृति को पहचाना जा सकता है।

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"भाषा किसे कहते हैं " written on bkue screen with some animated pictures

भाषा की परिभाषा

 हिंदी व्याकरण में बात करें तो "मानव जिस साधन या माध्यम की सहायता से अपने विचारों को व्यक्त करता है, उसे 'भाषा' कहते हैं।"   

आपने देखा होगा कि सामान्यतया लोग लिखकर या बोलकर अपना विचार प्रकट करते हैं। कुछ विचार संकेतों से भी प्रकट किए जाते हैं, परन्तु वे सर्वत्र एक ही अर्थ स्पष्ट नहीं करते हैं। वे बहुधा स्थान और प्रसंग पर निर्भर करते हैं।

भाषा का स्वरूप और प्रकृति

भाषा को यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था' माना गया है, जो समाज में आपस में विचार-विनिमय के लिए प्रयुक्त होती है। 

वास्तव में भाषा प्रतीकात्मक होती है और इसका कार्य संप्रेषण करना होता है। यह जिन प्रतीकों को लेकर चलती है, वे संकल्पना के रूप में साधारणीकृत होते हैं और संप्रेषण के रूप में भावों एवं विचारों का बोधन कराते हैं। 

स्विस विद्वान सस्यूर के अनुसार प्रतीक का संबंध संकेतित वस्तु और संकेतार्थ से होता है।

संकेतित वस्तु का अर्थ उन भौतिक और यथार्थ वस्तुओं के साथ जुड़ा हुआ है जो गैर-भाषायी तथा वास्तविक जगत् की होती है। 

उस यथार्थ वस्तु का मानव मस्तिष्क में जो चित्र बन जाता है वह संकल्पना मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय और परंपरागत परिवेशों से संबद्ध होती है।

प्रतीक से अभिप्राय यह है कि प्रतीक ध्वनियों का सार्थक और स्वतंत्र समूह है और प्रतीक के रूप में गृहीत शब्द या वाक्य की संकल्पना उन सभी वस्तुओं या भावों की सामान्यीकृत मानसिक यथार्थता होती है जो निर्दिष्ट वस्तुओं या भावों को अपने भीतर समेट लेती है। 

इसे भाषिक प्रतीक कहा जाता है। उदाहरण के लिए, हमारे सामने यथार्थ वस्तु पेड़ है, जिसके रूपाकार की संकल्पना मानव मस्तिष्क में बैठ गई है और ए+ए++अ ध्वनियों के संयोजन से यह भाषिक प्रतीक बन गया है। 

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पेड़' कई प्रकार के होते हैं छोटा पेड़, बड़ा पेड़, नीम का पेड़ आम का पेड़ आदि किंतु उस शब्द पेड़' के रूप में जो संकल्पना पैदा होती है, वह एक है और वह भी साधाणीकृत होती है। 

अतः इसमें वस्तु की अपनी विशिष्टता का लोप हो जाता है। यदि किसी विशेष पेड़ की संकल्पना को लाना होगा तो उसके साथ विशेषण लगाना होगा। 

जैसे, वह पेड़ देखो, यह नीम का पेड़ है, यह छोटा-सा पेड़ है। ध्यान में रहे कि ये भाषिक प्रतीक मूल रूप में ध्वनिपरक होते हैं किंतु बाद में लिपिबद्ध हो जाते हैं।

संकेतित वस्तु और प्रतीक का संबंध मानसिक रूप से माना जाता है, क्योंकि यह वक्ता और श्रोता के मस्तिष्क में संकल्पना के साथ रहता है लेकिन प्रतीक और यथार्थ वस्तु के बीच जो संकल्पनात्मक संबंध रहता है वह नैसर्गिक या प्राकृतिक न होकर यादृच्छिक होता है।

 इसलिए विभिन्न भाषाओं में विभिन्न शब्दों का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए, हिन्दी का शब्द 'घोड़ा', संस्कृत में शब्द 'अश्व', अंग्रेजी में 'हॉर्स', चीनी में 'मा', रूसी में कोन्य और फ्रेंच में शेवल' कहलाता है। 

इसी प्रकार 'पशु' शब्द यदि हिन्दी में जानवर का बोधक है तो मलयालम में वह 'गाय' का। इस प्रकार यथार्थ वस्तु, संकल्पना और प्रतीक का संबंध अनिवार्य रूप से स्थानवाची, कालवाची, सामाजिक-सांस्कृतिक, मनौवैज्ञानिक, ऐतिहासिक कई रूपों में दिखाई देता है।

 इससे अपने-अपने परिवेश में अर्थ भी बदल जाते हैं। कभी-कभी यथार्थ-वस्तु नहीं भी होती है और संकल्पना भी प्रतीक का रूप धारण कर लेती है; जैसे स्वर्ग, नरक, अमृत आदि 

प्रतीक परंपरागत संस्कार- सापेक्ष या समाज-संदर्भित होते हैं और इनकी अपनी मानसिक संकल्पना बनी रहती है।

संकेतित वस्तु, संकेतार्थ और प्रतीक के संबंधों के आधार पर कहा जा सकता है कि भाषिक प्रतीक कथ्य और अभिव्यक्ति की समन्वित इकाई है। 

इसमें इन दोनों पक्षों का होना अनिवार्य है अर्थात् यदि कथ्य और अभिव्यक्ति नहीं है और यदि अभिव्यक्ति है किंतु कथ्य नहीं तो उसे प्रतीक की संज्ञा नहीं दी जा सकती। 

जब हम प्रतीक के रूप में 'कमल' शब्द का उच्चारण करते हैं तो श्रोता के मन में तत्काल उसका कथ्य उभरकर आता है अर्थात् 'कमल' का रूप और गुण हमारे मस्तिष्क में आ जाते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं कि 'नीरज' या 'पंकज' शब्द की अभिव्यक्ति करने से श्रोता उसके कथ्य को पकड़ पाए। 

इस स्थिति में यह कहा जा सकता है कि कथ्य और अभिव्यक्ति के आंतरिक संबंधों के कारण श्रोता के लिए 'कमल' शब्द प्रतीकवत् सिद्ध है किंतु 'नीरज' या पंकज' कथ्य पक्ष के अभाव के कारण उसके लिए असिद्ध हैं। 

अतः कथ्य और अभिव्यक्ति का प्रतीक में अटूट संबंध है। इसी संबंध के कारण प्रतीक अपने आप में सिद्ध है लेकिन व्यक्ति विशेष या समाज-विशेष के लिए असिद्ध हो सकता है। 

कथ्य के स्तर पर अर्थ के कई आयाम होते हैं - बोधात्मक संरचनात्मक, सामाजिक और सांस्थानिक। 

एक ही प्रतीक में कम-से-कम एक या दो अर्थ मिल जाते हैं। 'जलज' और 'नीरज' दोनों का बोधात्मक अर्थ ‘कमल का फूल' है, लेकिन उससे जो अन्य अर्थ निकलता है वह 'विषय वासनाओं से अप्रभावित व्यक्ति का संकेत करता है। 

इस प्रकार एक या एक से अधिक कथ्य एवं अर्थ जहाँ एक ही अभिव्यक्ति में मिल जाते हैं तो वहीं दो या तीन अभिव्यक्तियों में एक ही अर्थ या कथ्य पाया जाता है। 

वस्तुतः कथ्य और अभिव्यक्ति में जो अटूट संबंध है उसमें लचीलापन भी है। इसी कारण हर भाषा में अनेकार्थी अथवा संदिग्धार्थी और पर्यायवाची शब्द या वाक्य मिल जाते हैं। 

 व्याकरण किसे कहते हैं

 हमने सबसे पहले जाना भाषा किसे कहते हैं,  अब हम जानेंगे  की व्याकरण किसे कहते हैं। और यह जानना इसलिए आवश्यक है  क्योंकि भाषा का व्याकरण में ही  उपयोग किया जाता है,  और बिना व्याकरण भाषा अधूरा है। 

'व्याकरण' शब्द की व्युत्पत्ति है - व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते, प्रकृति प्रत्यय द्वारा निष्पाद्यन्ते शब्दा: येन तत् शब्दं व्याकरणम् अर्थात् शब्दों को खण्ड-खण्ड करके प्रकृति प्रत्यय विभाग रूपी व्युत्पत्ति के द्वारा शब्दों के वास्तविक अर्थ और स्वरूप को बतलाने वाले शास्त्र को 'व्याकरण' कहते हैं। 

वि + आ + कृ + ल्युट् (अन)।  यानी कि व्याकरण शब्द का शाब्दिक अर्थ है- विग्रह या विश्लेषण

वैदिक वाङ्मय में व्याकरण का प्रमुख स्थान है। कहा भी गया है- "मुखं व्याकरणं स्मृतम्।"

जिस प्रकार किसी भी रत्न को परखने के लिए कसौटी (एक खास किस्म का पत्थर) होती है, ठीक उसी प्रकार व्याकरण भाषा की कसौटी है। 

इसका कारण इसी की सहायता से भाषा रूपी रत्न की परख होती है। व्याकरण अपने तर्कों द्वारा भाषा के सच्चे स्वरूप को प्रस्तुत करता है। यह भाषा की शुद्धता-अशुद्धता की पहचान कराता है। इसके अभाव में शब्दों के उचित प्रयोग नहीं हो सकते और ऐसा होने पर 'स्वजन' ( सम्बन्धी), 'श्वजन' (कुत्ता) और 'सकल' (सम्पूर्ण), 'शकल' (खण्ड) का अर्थ देकर अनर्थ के कारण हो सकते हैं।

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अतः व्याकरण, भाषा का विश्लेषण करके उसके स्वरूप को प्रकट करता है। वह भाषा को शुद्ध रूप से  पढ़ने, लिखने, समझने और बोलने की विधि बतलाता है। 

इन सब के निष्कर्ष से हम यह कह सकते हैं कि व्याकरण हुआ प्रवृत्ति है जिसके द्वारा भाषा का विश्लेषण तथा उसके मानक रूप को स्थिर किया जा सकता है । 

किसी भाषा के बोलने तथा लिखने के नियमों की व्यवस्थित पद्धति व्याकरण कहलाती है । इसके द्वारा शब्दों के रूप तथा प्रयोगों को निरूपित किया जाता है । 

यह भाषा को शुद्ध लिखने उच्चारण करें तथा समझने का ज्ञान भी प्रदान करता है । 

हिंदी व्याकरण संस्कृत व्याकरण पर पूर्णतया आधारित है, लेकिन इसे स्वतंत्र मानना अधिक समीचीन है । 

क्योंकि इसकी विशेषताएं संस्कृत से अत्यधिक प्रथक होने की प्रवृत्ति सामने लाती है , कामता प्रसाद गुरु तथा  दास वाजपेई ने सबसे पहले हिंदी व्याकरण को लिख हिंदी भाषा को स्थिर तथा परिष्कृत करने का प्रयास किया । 

हिंदी व्याकरण में तीन तत्वों के आधार पर अध्ययन की प्रक्रिया को स्वरूप प्रदान किया जाता है -

1. वर्ण विचार

2. शब्द विचार

3. वाक्य विचार

 भाषा कितने प्रकार के होते हैं 

भौगोलिक, ऐतिहासिक, प्रयोगात्मक प्रयोजनपरक आदि विभिन्न आधारों पर भाषा के विविध रूप दिखाई देते हैं।

भौगोलिक या क्षेत्रीयता के आधार पर भाषा के प्रकार 

क) व्यक्ति बोली (Ideolect)

सामाजिक क्षेत्रीय और पर्यावरणीय संदर्भों का व्यक्ति की भाषा पर प्रत्यक्ष एवं दूरगामी प्रभाव पड़ता है। इसी कारण हर व्यक्ति की अपनी व्यक्ति बोली होती है। 

हॉकेट के शब्दों में किसी निश्चित समय पर व्यक्ति विशेष का समूची वाक् व्यवहार उसकी व्यक्ति बोली है। यह व्यक्ति बोली शाब्दिक और व्याकरणिक व्यक्तिपरकता के कारण ही संभव होती है।

ख) स्थानीय बोली (Local Dialect)

बहुत सी व्यक्ति बोलियाँ मिलकर एक स्थानीय बोली बनती है जिनमें ध्वनि, रूप, याक्य एवं अर्थ के स्तर पर पारस्परिक बोधगम्यता होती है। 

यह किसी छोटे स्तर पर बोली जाती है, जिनमें व्यक्ति बोलियों का समाविष्ट रूप होता है। 

ग) उप बोली (Sub Dialect )

एकाधिक स्थानीय बोलियाँ मिलकर एक उपबोली बनती हैं, जैसे -भोजपुरी की छपरिया, खखार, शाहवारी, गोरखपुरी, नागपुरिया आदि अनेक उपबोलियां हैं।

घ) बोली (Dialect )

एकाधिक उपबोलियों मिलकर एक बोली बनती है जिसे विभाषा भी कहा जाता है। 

हालांकि कुछ विद्वानों ने कुछ बोलियों के उपवर्ग को उपभाषा कहा है, जैसे बिहारी उपभाषा में भोजपुरी, मैथिली और मगही बोलियों का वर्ग है।

(ड) उपभाषा (Sub language)

कुछ विद्वानों ने कुछ बोलियों के उपवर्ग को उपभाषा कहा है, जैसे बिहारी उपभाषा में भोजपुरी मैथिली और मगही बोलियों का एक वर्ग है। 

लेकिन यह वर्गीकरण ग्रामक और गलत है। इसमें व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता तो काफी हद तक मिल सकती है किंतु जातीय अस्मिता के कारण इनमें भिन्नता है। 

अतः हिन्दी को बिहारी, राजस्थानी आदि उपभाषाओं से अलग रखना सही नहीं है।

घ) भाषा (Language)

भाषा का क्षेत्र व्यापक होता है जिसमें एकाधिक बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ मिलकर एक भाषा बनाती है। 

एक भाषा के अंतर्गत एकाधिक बोलियाँ हो सकती है। 

जैसे हिंदी भाषा के अंतर्गत खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, हरियाणवी, मारवाड़ी आदि अट्ठारह बोलियाँ अथवा पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी बिहारी पहाड़ी और राजस्थानी उपभाषाएं हैं। 

भाषा में ऐतिहासिकता, जीवतता, स्वायत्तता और मानकता चार गुण पाए जाते हैं।

ऐतिहासिकता से अभिप्राय उनकी परंपरा और विकास से है, 

जीवतता का अर्थ उसके प्रयोग और प्रचलन से है, 

स्वायत्तता से आशय सभी कार्य क्षेत्र में इसका प्रयुक्त होना है 

और मानकता का अर्थ भाषा की संरचना में एकरूपता है। 

यद्यपि बोली और भाषा में व्याकरणिक समानता और बोधगम्यता तो प्रायः मिल जाती है, किंतु जातीय अस्मिता तथा जातीय बोध के कारण भाषा विशाल समुदाय की प्रतीक बन जाती है।

प्रयोग के आधार पर भाषा के प्रकार 

प्रयोग के आधार पर भाषा के विभिन्न रूप मिलते हैं, यथा -

क) सामान्य बोलचाल की भाषा (Language for Common use ) 

किसी भी समाज में रोजमर्रा के रूप में प्रयुक्त होने वाली सामान्य भाषा होती है। यह प्रायः संपर्क भाषा का काम करती है। 

यह अपनी विभिन्न भाषिक इकाइयों, शब्दावली और व्याकरणिकता के आधार पर अपनी पहचान बनाती है।

ख) साहित्यिक भाषा (Literary Language): 

यह भाषा का वह आदर्श रूप है जिसका प्रयोग साहित्य-रचना, शिक्षा आदि में होता है। यह प्रायः परिनिष्ठित होती है किंतु साहित्यिक भाषा कभी-कभी सामान्य भाषा के नियमों को तोड़ती है। 

विशिष्ट चयन संयोजन से यह विशिष्ट भाषा बन जाती है। हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, जर्मन आदि भाषाएँ साहित्यिक भाषा के रूप में भी प्रयुक्त होती है।

ग) व्यावसायिक भाषा (Language for Common use and Trade): 

यह भाषा व्यवसाय, व्यापार में प्रयुक्त होने के लिए विशेष रूप धारण करती है। यह प्रायः औपचारिक एवं अनौपचारिक और तकनीकी या अर्द्धतकनीकी होती है। 

यह लिखित और मौखिक दोनों रूपों में प्रयुक्त होती है। इसकी व्यवसाय या व्यापार संबंधी अपनी विशिष्ट शब्दावली और संरचना होती हैं।

घ) कार्यालयी भाषा (Official use): 

इस भाषा का प्रयोग कार्यालयों, निकायों, कंपनियों, प्रशासन आदि में होता है। यह सामान्य भाषा पर आधारित तो होती है लेकिन शब्दावली तथा संरचना में अंतर मिल सकता है। 

यह तकनीकी या अर्द्धतकनीकी होती है, इसीलिए यह प्रायः औपचारिक शैली में लिखी जाती है। इसके मौखिक रूप के स्थान पर लिखित रूप का अधिक प्रयोग होता है।

ङ) राजभाषा (Official Language). 

यह सरकार और जनता के बीच प्रयुक्त होने वाली भाषा है। यह प्रायः परिनिष्ठित और मानक होती है। यह देश में अधिक बोले जाने वाली भाषा होती है। 

इसमें विषयानुसार शब्दावली और संरचना का प्रयोग होता है। इसका प्रयोग प्रायः सरकारी मंत्रालयों, कार्यालयों कंपनियों, नियमों, निकायों, संसद आदि में होता है ताकि जनता के साथ संबंध बनाया जा सके। 

इसे सर्वजन सर्वकार्य सुलभ बनाने के लिए इसकी शब्दावली में उपयुक्त चयन करने की भी सुविधा रहती है। देश में प्रयुक्त अन्य भाषाओं की अपेक्षा इसका प्रायः प्रमुख स्थान रहता है। 

भारत की राजभाषा हिन्दी है।

च) राष्ट्रभाषा (National language) 

राष्ट्र की प्रतिष्ठा का प्रतीक राष्ट्रभाषा होती है। इसे राष्ट्रीय स्तर पर गौरवमय स्थान प्राप्त होता है, जो राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का होता है। 

वास्तव में राष्ट्रभाषा का संबंध राष्ट्रीय चेतना से होता है और राष्ट्रीय चेतना सांस्कृतिक चेतना से जुड़ी होती है। 

इसमें अपने देश की महान परंपरा और सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिता जागृत होती है। राष्ट्रभाषा राजभाषा हो सकती है लेकिन राजभाषा राष्ट्रभाषा भी हो, यह आवश्यक नहीं।

भारत में अधिकतर भाषाओं का गौरवमय इतिहास रहा है, इसलिए बहुभाषी भारत में इनको राष्ट्रभाषा कहा जा सकता है।

छ) गुप्त भाषा (Cant); 

यह भाषा किसी विशेष वर्ग या समूह या संप्रदाय में प्रयुक्त होती है, जिसे उसी वर्ग के लोग समझ सकें। 

इसे वर्ग भाषा या चोर भाषा (roget) भी कहते हैं। इसकी सीमा भौगोलिक नहीं होती। 

वस्तुतः यह भाषा सेना, डकैतों या चोरों द्वारा प्रयुक्त होती है। इसे कूट भाषा (Code language) भी कह सकते हैं, जो गोपनीय और मनोरंजन के लिए प्रयुक्त होती है। यह वस्तुतः अंतरंग वर्ग की भाषा है।

ज) मृत भाषा (Dead language); 

जिस भाषा का प्रयोग भूत काल में जीवंत भाषा के रूप में होता रहा हो, 

जिसका विपुल साहित्य भंडार भी हो और जिसका प्रयोग राज काज में भी हुआ हो, किंतु वर्तमान काल में यदि जिसका व्यवहार सामाजिक दृष्टि से न हो रहा हो अथवा उसका प्रयोग बहुत ही सीमित हो गया हो तो उसे मृत भाषा कहते हैं। 

वर्तमान में इस भाषा का अस्तित्व परंपरा, धर्म, संस्कृति को सुरक्षित रखने की दृष्टि से होता है। यह एक प्रकार से पुस्तकालय भाषा का रूप ले लेती है। 

ग्रीक, लेटिन, संस्कृत आदि भाषाओं का कभी अत्यधिक प्रयोग होता था, किंतु अब इनका प्रयोग अतिसीमित संदर्भों में हो रहा है।

निर्माण के आधार पर भाषा के प्रकार 

i) सहज भाषा 

सामान्य बोलचाल की भाषाएँ, जिनका उद्भव प्राकृतिक और सहज रूप में हुआ है; 

जैसे हिन्दी, अंग्रेजी, जर्मन

ii) कृत्रिम भाषा 

विभिन्न भाषाओं के बीच सार्वभौमिक रूपों को लेकर अंतरराष्ट्रीय संप्रेषण की दृष्टि से कृत्रिम भाषा के निर्माण कार्य का प्रयास हुआ जैसे एस्पेरतो. इंडो। 

इसका उद्देश्य विभिन्न भाषा-भाषी लोगों को परस्पर लाकर भाषिक आदान प्रदान की सुविधा देना था कृत्रिम भाषा के दो उपभेद हैं -

सामान्य कृत्रिम भाषा - सामान्य बोलचाल में प्रयुक्त करने के लिए बनाई गई भाषा: जैसे एस्पेरैतो भाषा

गुप्त कृत्रिम भाषा-  किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए बनाई गई भाषा सेना, दलालों, डाकुओं आदि की भाषा

मानकता के आधार पर भाषा के प्रकार 

मानक या परिनिष्ठित भाषा (standard language)-  जो व्याकरणसम्मत तथा प्रयोगसम्मतः हो। 

ध्वनि, शब्द, वाक्य आदि में व्याकरण सम्मत होने के साथ-साथ एकरूपता और लोक स्वीकृति हो, जैसे मुझे घर जाना है।

मानकेत्तर भाषा (Non-standard language): जो प्रयोगसम्मत हो, जिसमें लोकस्वीकृति हो किंतु व्याकरणसम्मत न हो; 

जैसे - मैंने घर जाना है।

अमानक भाषा - जो व्याकरणसम्मत और एकरूपी न हो तथा उसे लॉकस्वीकृति भी प्राप्त न हो। 

यथा- मेरे को जाना है।

उपभाषा (Stang) - यह भाषा व्यवहार में अनौपचारिकता का अतिशयवादी रूप है जो प्रायः अशिक्षित या अशिक्षित वर्ग के लोगों में चलती है। 

इसमें के साथ-साथ अशिष्ट एवं अग्र रूपी तथा लाल के देठ और अतीस शब्दों का भी प्रयोग धड़ल्ले से होता है।

प्रकार्य के आधार पर भाषा के प्रकार 

संपूरक भाषा - निजी ज्ञान की वृद्धि के लिए द्वितीय भाषा प्रयोग करना सीखना।  

यह पुस्तकालय भाषा होती है जिसका सक्रिय प्रयोग नहीं होता। राजनयिकों आदि द्वारा सीमित प्रयोग के लिए भी यह भाषा सीखी जाती है।

परिपूरक भाषा - सामाजिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए समुदाय में प्रचलित दूसरी भाषा को जानना आवश्यक है। 

मातृभाषा के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर परिपूरक के रूप में प्रयुक्त भाषा जैसे भारत में हिन्दी या अपनी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी 

सहायक भाषा-  व्यक्ति अपने समुदाय में दूसरी भाषा का ज्ञान अपने ज्ञान की सहायक भाषा के रूप में करता है जैसे हिन्दी और संस्कृत हिन्दी का प्रयोग करते हुए व्यक्ति को कभी संस्कृत की भी सहायता लेनी पड़ती है।

समतुल्य भाषा-  जब कोई व्यक्ति दूसरी भाषा में भी समतुल्य ज्ञान प्राप्त कर धीरे-धीरे उस भाषा का भी उन सभी सामाजिक संदर्भों में प्रयोग करने लगे जिनमें वह मातृभाषा का करता रहा है उनके लिए समतुल्य भाषा हो गई है। 

इसमें दोनों भाषाओं पर समान अधिकार की अपेक्षा होती है, जैसे भारत में हिन्दीतर भाषी अपनी मातृभाषा के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग करने लगते हैं। 

इसलिए अमेरिका में विभिन्न देशों के बसे लोग अपनी-अपनी मातृभाषा छोड़कर अंग्रेजी का प्रयोग करने लगे हैं।

ऐतिहासिकता के आधार पर भाषा के प्रकार 

मूल या उद्गम भाषा-  मूल या उद्गम भाषा, भाषा का वह प्राथमिक स्वरूप है जो स्वयं किसी से प्रसूत नहीं होता वरन वह अन्य भाषाओं को प्रसूत करता है, 

अर्थात् जिससे अन्य भाषाएँ निकली हों, जैसे भारोपीय भाषा

प्राचीन भाषा-  जो प्राचीन काल में प्रयुक्त हुई हो, जैसे संस्कृत, ग्रीक, लेटिन, हिब्रू, तमिल 

मध्यकालीन भाषा -  जिनका प्रयोग मध्यकाल में हुआ हो।  भारतीय संदर्भ में पालि प्राकृत, अपभ्रंश 

आधुनिक भाषा - जिनका प्रयोग आधुनिक काल में हो रहा हो, जैसे हिंदी, मराठी, बंगला, अंग्रेजी, फ्रेंच

सम्मिश्रीकरण के आधार पर भाषा के प्रकार 

पिजिन (Pidgin) - जब कोई भाषाभाषी समुदाय किसी अन्य भाषाभाषी समुदाय में उपनिवेश बनाकर रहता है तो उनके परस्पर संपर्क से दो भाषाओं के मिश्रण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। 

यह भाषा का प्रारंभिक और सरलीकृत रूप होता है। यह किसी समुदाय की मातृभाषा नहीं होती। यह एक प्रकार की मिश्रित भाषा होती है। इसलिए इसे संकर भाषा भी कहते हैं।

क्रियोल (Creole)  - यह पिजिन का विकसित रूप है। पिजिन बोलने वाली पीढ़ी के बाद आने वाली पीढ़ी पिजिन को क्रियोल में बदल देती है। 

यह भाषा मूल भाषा की ध्वनि और रूपपरक संरचना को त्याग कर अपना स्वतंत्र स्वरूप बना लेती है। 

मॉरिशस, गुयाना, सूरीनाम त्रिनिदाद-टोबेगो आदि देशों में क्रियोल का प्रयोग होता है। इनमें कहीं फ्रेंच अंग्रेजी के तत्व है, तो कहीं डिच और हिंदी के और कहीं अंग्रेजी और हिंदी के। 

इसे संसृष्ट भाषा भी कहा  जाता है। 

भाषा की विशेषताएं

भाषा में निम्नलिखित विशेषता होती है।

  1. भाषा प्रतीकात्मक है। 
  2. भाषा ध्वनि मय है।
  3. भाषा का सम्बन्ध मनुष्य से है।
  4. भाषा मुख से उच्चरित होती है।
  5. भाषा एक व्यवस्था है जो अनुकरण से आती है।
  6. भाषा परिवर्तनशील हैं। 
  7. भाषा की क्षेत्रीय सीमा होती है।
  8. भाषा सरलता एवं प्रौढता की दिशा में सतत गतिशील होती है।
  9. भाषा का विकास नदी की धारा के समान अबाध गति से होता रहता है।

 चलते चलते

 अगर हम हिंदी व्याकरण को  पढ़ना शुरू करते हैं,  तो हमारे समक्ष सबसे पहले भाषा ही आता है, और भाषा किसे कहते हैं  यह जाने  बिना हम भी हिंदी व्याकरण की कल्पना नहीं कर सकते।  आशा है हमारे इस आर्टिकल को पढ़ने के बाद  आपको भाषा से संबंधित कोई भी प्रश्न शेष नहीं रह गया होगा। 

 जरा हटके

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