संस्कृत में कारक। कारक और विभक्ति karak in sanskit

वैसे  तो हिंदी में कारक, या हिंदी व्याकरण में कारक किसे कहते हैं आपने पढ़ा ही होगा, अच्छा नहीं पढ़ा ? अरे भाई सुना तो जरूर होगा | अच्छा अगर हिंदी में नहीं सुना तो संस्कृत में कारक तो आपने पक्का पढ़ा होगा , तभी तो आपने karak in sanskrit को सर्च किया है। 

दोस्तों अगर आप हिंदी के परिभाषा को अगर अब तक संस्कृत में इस्तेमाल करते आये हैं  तो आपको बता दूँ कि  संस्कृत में इसकी परिभाषा और समझने में थोड़ी सी भिन्नता होती है, इसलिए आज हम आपको बताएंगे कि संस्कृत में कारक किसे कहते हैं ? 

और आखिर हम कैसे संस्कृत में कारक (karak in sanskrit) को परिभाषित कर सकते हैं और इसके सारे प्रकारों की परिभाषा भी हम संस्कृत में जानेंगे | 

संस्कृत में कारक की परिभाषा 

क्रियान्वयिकारकम् – अर्थात क्रिया के साथ जिसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध हो, उसे कारक कहते है। मूल  ही हम करक की संस्कृत में परिभाषा कह सकते हैं | यह हुई संस्कृत में कारक की परिभाषा (karak in sanskrit) .

जैसे- 'बालकः पठति' (लड़का पढ़ता है) इस वाक्य में पठति' क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध 'बालक: ' से है, इसलिए 'बालकः' कर्ताकारक हुआ। अब यहाँ आपको यहाँ कर्ताकारक देख के घबराने की जरूरत नहीं है,  क्योकि यह करक का एक प्रकार है,जिसके बारे में मैं आपको निचे बताऊंगा |

वैसे तो मैं आपको संस्कृत व्याकरण के अधिकतर टॉपिक के बारे में पूर्ण विस्तार से बताऊंगा लेकिन अगर आप हिंदी व्याकरण में वर्ण के बारे में जाने के लिए इच्छुक हैं तो जरूर पढ़ें : वर्ण किसे कहते है

संस्कृत में कारक के भेद 

संस्कृत व्याकरण में कारक के छह भेद माने गए है— कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण 

नोट :  क्रिया के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रहने के कारण सम्बन्ध और सम्बोधन को कारक नहीं माना जाता है।

karak-in-sanskrit

 जैसे -रामस्य अश्व: धावति (राम का घोड़ा दौड़ता है) - इस वाक्य में 'धावति' क्रिया का सम्बन्ध 'अश्वः 'से है, न कि 'रामस्य' से; इसलिए 'अश्वः' में कर्ताकारक हुआ और रामस्य में कोई कारक नहीं। 'अश्व' (घोड़ा) का सम्बन्ध चूँकि 'राम' से है, इसलिए 'राम' शब्द में पष्ठी विभक्ति हुई। अब आप कहेंगे की यह नयी बला विभक्ति क्या है ?


विभक्ति किसे कहते हैं ? Vibhakti in sanskrit 

जिसके द्वारा कारक और वचन विशेष का बोध हो, उसे विभक्ति कहते है। प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, पष्ठी और सप्तमी- ये सात विभक्तियाँ है। प्रत्येक विभक्ति में तीन वचन होते हैं। 

कर्ताकारक में प्रथमा, कर्म में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी,अपादान में पंचमी, सम्बन्ध में षष्ठी तथा अधिकरण में सप्तमी विभक्ति लगती है।
संस्कृत-विभक्ति  कारक हिंदी - विभक्ति 
प्रथमा    कर्ता                ने, 
द्वितीया     कर्म               को,
तृतीया    करण                  से, द्वारा    
चतुर्थी  सम्प्रदान        को, के लिए   
पञ्चमी  आपदा               से,
षष्ठी   संबंध  का, के, की, रा, रे, री  
सप्तमी अधिकरण         में, पै, पर 
प्रथमा  सम्बोधन  हे, अरे, अहो, अजी, भो,

1. कर्ता कारक किसे कहते हैं ?

स्वतन्त्रः कर्ता- क्रिया के सम्पादन में जो स्वतन्त्र हो, उसे कर्ता कारक कहते हैं। कर्ताकारक में प्रथमा विभक्ति होती है। 

जैसे-लड़का पुस्तक पढ़ता है- बालकः पुस्तकं पठति। इस वाक्य में पढ़ने की क्रिया बालक कर रहा है, इसलिए 'बालक: ' कर्ताकारक हुआ।

➲ प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा– शब्दार्थमात्र संख्या परिमाण, लिंग  या वचन मात्र का बोध होने पर प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे :

शब्दार्थ मात्र में— उच्चैः रामः फलम् 

संख्या मात्र में - द्वौ बालकौ, त्रीणि फलानि 

परिमाण मात्र में— द्रोणो व्रीहिः (धान्य) 

लिङ्ग मात्र में— तटः, नदी, तीरम् 

वचन मात्र में— बालकः (एकवचन), बालकौ (द्विवचन), बालकाः (बहुवचन) 

➲ सम्बोधने च – सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे— हे कृष्ण! पुस्तक लाओ (हे कृष्ण! पुस्तकम् आनय) । इस वाक्य में 'हे कृष्ण' सम्बोधन है, इसलिए इसमें प्रथमा विभक्ति हुई। इसी तरह, 'हे सीते!', 'हे मुने!' आदि में समझना चाहिए।

विभक्तियों के विशेष प्रयोग

क्रिया सम्पादकः कर्त्ता : - क्रिया का सम्पादन करने वाला कर्त्ता कारक होता है यथा- रामः पठति ।

१. कर्तरि प्रथमा- कर्त्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-रामः गृहं गच्छति । कृष्णः पुस्तकं पठति । 

२. अभिधेयमात्रे प्रथमा :- अभिधेय का अर्थ है नाम केवल नाम व्यक्त करना हो, तो उसमें प्रथमा विभक्ति लगती है। जैसे-रामः कृष्णः, गज, देवः, आदि 

३. अव्यययोगे प्रथमा :-  अव्यय शब्दों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है, जैसे- शूद्रकः इति राजा आसीत् । कृष्णः इति सखा अस्ति

४. सम्बोधने प्रथमा :- सम्बोधन कारक में प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे-हे कृष्ण ! अत्र आगच्छ

५. प्रयोजके कर्तरि प्रथमा :- प्रयोजक कर्त्ता में प्रथमा विभक्ति होती जैसे-पिता पुत्रं मेघम् दर्शयति । हरिः भक्तम् स्वर्गं गमयति ।

६. उक्ते कर्मणि प्रथमा :- कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है । जैसे-मया कृष्णः दृश्यते । तेन हरिः सेव्यते । 

2. कर्म कारक किसे कहते हैं ?

कर्तुरीप्सिततमं कर्म – कर्ता को क्रिया के द्वारा जो अत्यंत अभीप्सित हो, उसे कर्म कारक कहते हैं। जैसे– बच्चा चन्द्रमा को देखता है (बाल: चन्द्रं पश्यति)। इस वाक्य में 'बाल: ' कर्ता को 'पश्यति' क्रिया के द्वारा अभिलषित चन्द्रमा है, इसलिए ‘चन्द्रं' कर्मकारक हुआ।

➲ कर्मणि द्वितीया – कर्मकारक में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे— सीता रोटी खाती है (सीता रोटिकां खादति)। इस वाक्य में 'रोटिकां' कर्मकारक है, इसलिए इसमें द्वितीया विभक्ति हुई।

➲ क्रियाविशेषणे च – क्रियाविशेषण में भी द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे 1. कछुआ धीरे-धीरे चलता है – कच्छपः मन्दं मन्दं चलति । 2. मोहन मीठी बात करता है— मोहनः मधुरं वदति।

उपर्युक्त प्रथम वाक्य में 'मन्दं मन्दं' तथा दूसरे वाक्य में 'मधुरं' क्रियाविशेषण  हैं, इसलिए इनमें द्वितीया विभक्ति हुई।

सर्वतः, परितः, अभितः (चारों ओर), उभयतः (दोनों ओर), प्रति, निकषा (समीप), धिक्, अनु, यावत् शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे : 

  1. गाँव के चारों ओर खेत हैं— ग्रामं सर्वतः क्षेत्राणि सन्ति। 
  2. घर के दोनों ओर पेड़ हैं— गृहम् उभयतः वृक्षाः सन्ति । 
  3. नदियाँ समुद्र के पास जाती हैं – नद्यः समुद्रं प्रति गच्छन्ति । 
  4. विद्यालय के निकट नदी है – विद्यालयं निकषा नदी अस्ति। 
  5. राष्ट्र के अभक्त को धिक्कार है- राष्ट्रस्य अभक्तं धिक् ! 
  6. वह पुस्तक की नकल करता है- स पुस्तकम् अनुकरोति । 
  7. राम घर तक जाएगा – रामः गृहं यावत् गमिष्यति।

दुह्, याच्, प्रच्छ् आदि धातुओं के योग में दो कर्म होते हैं, और दोनों में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे :

  1. रमेश गाय दुहता है- रमेश: गां दुग्धं दोग्धि। 
  2. किसान से अन्न माँगता है— कृषकम् अन्नं याचते। 
  3. छात्र शिक्षक से पाठ पूछता है— छात्रः शिक्षक पाठं पृच्छति ।

3. करण कारक किसे कहते हैं ?

साधकतमं करणम् – क्रिया के करने में जो अत्यंत सहायक हो, उसे करण कारक कहते हैं। जैसे— राधा कलम से लिखती है (राधा कलमेन लिखति)। इस वाक्य में लिखना क्रिया का सहायक 'कलम' है, इसलिए यह (कलम) करणकारक हुआ। 

➲  कर्तृकरणयोस्तृतीया- अनुक्त कर्ता अर्थात् कर्मवाच्य और भाववाच्य के कर्ता में तथा करण में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे

  1. कर्मवाच्य में - राम चन्द्रमा को देखता है— रामेण चन्द्रः दृश्यते।
  2. भाववाच्य में- मदन हँसता है-मदनेन हस्यते ।
  3. करणकारक में- हरिण को बाण से बेधता है- मृगं बाणेन विध्यति।

उपर्युक्त प्रथम वाक्य में कर्मवाच्य का कर्ता 'रामेण' है तथा दूसरे वाक्य में भाववाच्य का कर्ता 'मदनेन' है, इसलिए दोनों में तृतीया विभक्ति हुई।तीसरे वाक्य में 'बाणेन' करणकारक है, इसलिए इसमें भी तृतीया विभक्ति हुई।

➲ अपवर्गे तृतीया— कार्य समाप्ति या फल प्राप्ति के अर्थ में कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। यथा - मासेन गणितं शिक्षितम् (एक - मास में गणित सीख लिया)। त्रिकोशेन उत्तररामचरितं 'पठितम् (तीन कोस जाते-जाते उत्तररामचिरत पढ़ लिया)।

➲ सहयुक्तेऽप्रधाने–सह, साकं, सार्द्ध (साथ) आदि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे- राम के साथ सीता वन गई— रामेण सह सीता वनम् अगच्छत् । यहाँ 'सह' शब्द के योग में 'रामेण' में तृतीया विभक्ति लगी। इसी तरह साकं, सार्द्ध के योग में समझना चाहिए।

➲ येनांगविकार: – जिस अंग से विकार का ज्ञान हो उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे— पीठ का कुबड़ा – पृष्ठेन कुब्जः, पाँव से लँगड़ा-पादेन खञ्जः, कानों का बहरा – कर्णाभ्यां बधिरः । इन वाक्यांशों में क्रमश: 'पृष्ठेन', 'पादेन' तथा - ‘कर्णाभ्यां' अंगसूचक शब्दों में विकार रहने के कारण तृतीया विभक्ति हुई।

➲ प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानम् – प्रकृति, जाति, आकृति, नाम आदि कई शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे— प्रकृत्या शूर: (स्वभाव से वीर), जात्या ब्राह्मण: (जाति का ब्राह्मण), आकृत्या सुन्दर: (आकृति से सुन्दर), नाम्ना सुरेशः (नाम से सुरेश), सुखेन शेते (आराम से सोता है) इत्यादि।

➲ इत्यंभूत लक्षणे – जिस लक्षण से कोई व्यक्ति या पदार्थ पहचाना जाए, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-जटाभिः तापस: (जटाओं से तपस्वी ज्ञात होता.. है), शिखया हिन्दुः (चोटी से हिन्दू मालूम पड़ता है), पुस्तकैः छात्रः ( पुस्तकों से छात्र ज्ञात होता है)।

4. सम्प्रदान कारक किसे कहते हैं ?

कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम् - जिसको दिया जाए, उसे सम्प्रदान कारक कहते हैं। जैसे— ब्राह्मण को वस्त्र देता है (ब्राह्मणाय वस्त्रं यच्छति)। इस वाक्य में ब्राह्मण को वस्त्र देने की बात कही गई है, इसलिए 'ब्राह्मणाय' सम्प्रदानकारक हुआ।

➲ चतुर्थी सम्प्रदाने – सम्प्रदानकारक में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे— छात्र को पुस्तक देता है (छात्राय पुस्तकं ददाति)। इस वाक्य में छात्र सम्प्रदानकारक है, इसलिए इसमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर 'छात्राय' हुआ।

➲ नमः, स्वस्ति आदि शब्दों के योग में भी चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे— राम को प्रणाम – रामाय नमः, शारदा को प्रणाम – शारदायै नमः, लोगों का कल्याण  हो — जनेभ्यः स्वस्ति ।

➲ रुच्यर्थानां प्रीयमाणः - रुच् धातु तथा उसके समानार्थक अन्य धातुओं के योग में प्रसन्न होनेवाले में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे- बच्चे को लड्डू अच्छा लगता है — बालकाय मोदकं रोचते।

➲ तादध्ये चतुर्थी - जिसके लिए कोई चीज हो या जिसके लिए कोई क्रिया की गयी हो उसे तादर्ध्य कहते हैं। इनमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-अध्ययनाय पुस्तकम् । आभूषणाय स्वर्णम् । मुक्तये भजति । 

➲ तुमर्थाच्च भाववचनात् चतुर्थी अथवा क्रियार्थोपपदस्य चकर्मणिस्थानिनः तुमुन प्रत्ययान्त शब्दों के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-फलेभ्यः उद्यानं गच्छति बालकः । यहाँ फलेभ्य: का अर्थ है फलान्याहर्तुम् अर्थात् फल लाने के लिए भोजनाय गच्छति ।

➲. निवारणार्थे चतुर्थी-जिनके निवारण के लिए कोई चेष्टा हो या कोई वस्तु हो उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-मशकाय धूमः । सपय दण्ड: । दुष्टाय खड्गः । 

➲ कुद्दुहेर्थ्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः- क्रुध, द्रुह, ईर्ष्या, असूया अर्थवाची क्रियाओं के योग में जो इनका विषय होता है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-प्रभुः भृत्याय क्रुध्यति । दुर्जनः सज्जनाय असूयति, दुह्यति, ईर्ष्यति वा ।

 नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषद् योगाच्च - नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् और वषट् शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे- श्रीगणेशाय नमः, अग्नये स्वाहा, पितृभ्यः स्वधा, इन्द्राय वषट्, अलं मल्लः मल्लाय ।

➲ उपविभक्तेः कारक विभक्तिर्वलीयसी - नमः, आदि शब्दों के साथ कू आदि धातुओं का प्रयोग होता है तब नमः आदि के योग में चतुर्थी न होकर द्वितीया विभक्ति होती है। केवल नमः, उपपद है और क्रियायुक्त नमः कारक विभक्ति के अर्थ में है। जैसे-मुनित्रयं नमस्कृत्य, गुरुम् नमस्करोति । 

➲ स्पृहेरीप्सितः -  स्पृह (इच्छा) धातु के योग में जिस चीज की इच्छा होती है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-पदाय स्पृहान्ति नेतारः ! ज्ञानाय स्पृह्यति ज्ञानी । 

➲ धारेरुत्तमर्ण:- धारि धातु के अर्थ में उत्तमर्ण: (कर्ज देने वाला) में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-देवदत्तः महाम् शतं धारयति । अर्थाव् देवदत्त मेरा सौ रुपये का कर्जदार है।

➲ कथनार्थ प्रेरणावँश्च- जिससे कहा जाए और जिसे प्रेरणा की जाए अर्थात् भेजा जाए दोनों में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-शिष्यः गुरवे सर्व निवेदयति । राजा मन्त्रिणे दूतम् प्राहिणोत्।

➲ मन्यकर्मण्यनादरे विभाषा उप्राणिषु - अनादर के अर्थ में मन् (मानना) धातु के योग में अप्राणिवाचक होने पर विकल्प से चतुर्थी अथवा द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-न अहं त्वां तृणाय, तृणं वा मन्ये । 

➲ क्लृपि सम्पद्यमाने- क्लृप्, जन्, भू और सम्-पूर्वक धातु के पद के योग में यदि सम्पद्यमान अर्थात् किसी रूप में होने या परिणत होने का भाव रहता है तो चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-भक्तिः ज्ञानाय कल्पते, धनं सुखाय भवति, ज्ञानं कल्याणाय जायते । ज्ञानं मुक्तये सम्पद्यते ।

5. अपादान कारक किसे कहते हैं ?

ध्रुवमपायेऽपादानम् – जिस निश्चित स्थान से कोई वस्तु अलग हो, उसे - अपादान कारक कहते हैं। जैसे— 'पेड़ से पत्ते गिरते हैं— वृक्षात् पत्राणि -इस वाक्य में पेड़ से पत्ते अलग होते हैं, इसलिए 'वृक्षात् पतन्ति' – इस वाक्य अपादानकारक हुआ।

➲ अपादाने पंचमी- अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे— 'घर से लड़का में जाता है- गृहात् बालकः गच्छति' – इस वाक्य में 'गृहात्' अपादानकारक है इसलिए इसमें पंचमी विभक्ति हुई।

➲ जिससे कोई वस्तु उत्पन्न हो, उसमें भी पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-रस से रक्त उत्पन्न होता है- रसात् रक्तम् प्रजायते ।

➲ वहिः (बाहर), आरात् (समीप), ऋते (बिना), दिशा, देश वाचक आदि शब्दों के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे -

  1. गाँव के बाहर विद्यालय है- ग्रामात् बहि: विद्यालयः अस्ति। 
  2. घर के समीप खेत है- गृहात् आरात् क्षेत्रम् अस्ति। 
  3. परिश्रम के बिना विद्या नहीं होती है- परिश्रमात् ऋते विद्या न भवति। 
  4. गाँव से उत्तर तालाब है- ग्रामात् उत्तरस्यां तडागः अस्ति। 
  5. भारत से पश्चिम इंगलैंड है— भारतात् पश्चिमायाम् आंग्लदेशः।

➲ भीत्रार्थानां भयहेतुः – भयार्थक और रक्षार्थक धातुओं के योग में भय का जो कारण रहता है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे—वह साँप से डरता है— सः सर्पात् बिभेति। सिपाही बदमाशों से लोगों की रक्षा करते हैं— राजपुरुषाः दुष्टेभ्यः जनान् रक्षन्ति।

➲ पृथग्विनाभ्यां द्वितीयातृतीये च – पृथक् (अलग) और बिना शब्दों के योग में पंचमी, तृतीया और द्वितीया तीनों विभक्तियाँ होती हैं। जैसे—आँवले के तेल से अलग यह तेल है— आमलकी तैलात् (तैलेन, तैलं) पृथक् इदम् तैलम्-धर्म के बिना सुख नहीं मिलता – धर्मात् (धर्मेण, धर्म) बिना सुखं न मिलति ।

➲ अन्यार्थैः -अन्य, इतर, अतिरिक्त, भिन्न आदि अन्यार्थक शब्दों के योग में पंचमी - विभक्ति होती है। जैसे— मित्र के सिवा दूसरा कौन सहायक हो सकता है—मित्रात् अन्यः कः सहायकः भवति? सरकार से अलग यह संघ है- सर्वकारात् भिन्नः अयं संघः ।

 वारणार्थानाम् ईप्सित:-जिससे किसी व्यक्ति या वस्तु को दूर किया जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-शस्यात् वृषभं वारयति । दुग्धात् विडाल वारयति । 

 हेती पंचमी तृतीया च - कारण का बोध होने पर उसमें पंचमी और तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-कष्टात्, कष्टेन वा क्रन्दति । 

➲ पृथग्विनाभ्यां द्वितीया तृतीया पंचमी च-पृथक् और विना के योग में द्वितीया, तृतीया और पंचमी विभक्तियाँ होती हैं। जैसे-रामं, रामेण, रामात् वा विना अयोध्या शून्या

➲ जुगुप्साविरामप्रमादार्थानाम्-  जिससे जुगुप्सा अर्थात् घृणा हो या जिससे विराम हो और जिसमें प्रमाद (भूल) हो उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-पापात् जुगुप्सते अध्ययनात् विरमति । धर्मात् प्रमाद्यति । 

➲. स्यब्लोपे पंचमी - ल्यप् प्रत्ययान्त शब्द यदि वाक्य में छिपा हो तो कर्म या अधिकरण कारक में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे सः प्रासादात् पश्यति । इसका अर्थ है-सः प्रासादम आरुह्य पश्यति । आसनात् पश्यति मुनिः, अर्थात् आसने उपविश्य पश्यति मुनिः

➲. आख्यातोपयोगे पंचमी- जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-अध्यापकात् शास्त्रम् अधीते । गुरोः वेदम् अघीते।

➲ भुवः प्रभवश्च - भू धातु के योग में जहाँ से कोई चीज उत्पन्न होती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-हिमालयात् गंगा प्रभवति ।

➲ येनादर्शनमिच्छति- जिससे अपने को छिपाया जाए उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे- मातुः निलीयते कृष्णः, आचार्यात् निलीयते शिष्यः ।

➲. बहिर्योोंगे पंचमी चहि: (बाहर) के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे ग्रामात्

 बहिः सरः वर्तते ।

➲. अन्यारात् प्रभृतिभ्यः पंचमी-अन्य, आरात् ((नजदीक), प्रभृति (from) के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-ब्राह्मणात् अन्यः । आयत् वनात् (वन के पास) । शैशवात् प्रभृति (बचपन से) ।

➲. आङमर्यादाभिविष्यो:- तेन विना, मर्यादा (सीमा), तत्सहित, अभिविधिः (व्याप्ति), सीमा और व्याप्ति अर्थ में आ उपसर्ग के योग में पंचमी विभक्ति होती है।

6. सम्बन्ध कारक 

षष्ठी शेषे– कर्तादि कारकों से भिन्न ‘शेष' अर्थात् स्व-स्वामिभावादि सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे— राम का दूत – रामस्य दूतः । यहाँ राम और दूत में स्व-स्वामिभाव सम्बन्ध है। देवदत्त का बेटा – देवदत्तस्य पुत्र:- - यहाँ जन्य-जनकभाव सम्बन्ध है। इसी तरह, किसी भी प्रकार के सम्बन्ध में षष्ठी होती है। जैसे—विद्यालय का छात्र - विद्यालयस्य छात्रः माता का हृदय – मातुः हृदयम्, राष्ट्र का नेता - राष्ट्रस्य नेता आदि।

दूरम्, अन्तिकम् (समीप), कुशलम्, हितम् आदि शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है। दूरम् और अन्तिकम् के योग में पंचमी विभक्ति भी होती है। जैसे

  1. गाँव से दूर विद्यालय है— ग्रामस्य (ग्रामात्) दूरं विद्यालयः अस्ति। 
  2. विद्यालय के समीप कुआँ है— विद्यालयस्य (विद्यालयात्) अन्तिकं कूपः अस्ति।
  3. आपका कल्याण हो— भवतः कुशलं भवेत् । 
  4. समाज की भलाई करनी चाहिए- समाजस्य हितं कुर्यात् ।

 ➲ तुल्यार्थेस्तृतीया च- तुल्य, सम आदि समानार्थबोधक शब्दों के योग में पष्ठी और तृतीया दोनों विभक्तियाँ होती हैं। जैसे— सत्य के समान तप नहीं है- सत्यस्य (सत्येन) तुल्यं तपः नास्ति।

7. अधिकरण कारक किसे कहते हैं ?

आघारोऽधिकरणम् – क्रिया के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं। जैसे— 'विद्यालय में - विद्यालये छात्राः पठन्ति' - इस वाक्य में छात्रों के पढ़ने का आधार छात्र पढ़ते हैं— विद्यालये छात्रा: पठन्ति' ‘विद्यालय' है, इसलिए 'विद्यालये' अधिकरणकारक हुआ।

➲ सप्तम्यधिकरणे अधिकरणकारक में सप्तमी विभक्ति होती है, जैसे- 'पेड़ पर कौआ है – वृक्षे काकः अस्ति' - इस वाक्य में 'वृक्षे' अधिकरणकारक है, इसलिए इसमें सप्तमी विभक्ति हुई ।

➲ निर्धारणे षष्ठी – अनेक में से यदि किसी एक वस्तु की महत्ता बताई जाए तो वहाँ - षष्ठी और सप्तमी दोनों विभक्तियाँ होती हैं। जैसे— पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है – पर्वतेषु (या पर्वतानां) हिमालयः श्रेष्ठ: । कवियों में कालिदास श्रेष्ठ हैं— कविषु (या कवीनां) कालिदास श्रेष्ठः ।

➲. अवच्छेदे सप्तमी- शरीर के किसी भी अंग में यदि सप्तमी विभक्ति लगी रहती तो उसे 'अवच्छेदे' कहते हैं। जैसे-करे गृहीत्वा कथितः ।

➲ यतश्च निर्धारणम् (91S)- यदि कुछ व्यक्तियों या वस्तुओं में किसी को श्रेष्ठ बताया जाए तो जिसको श्रेष्ठ बताया जाएगा उसमें सप्तमी और षष्ठी विभक्तियाँ होती हैं । जैसे-कवीनां कविषु वा कालिदासः श्रेष्ठः ।

➲. निमित्तात् कर्मयोगे वा सम्प्रदाने सप्तमी या निमित्तार्थे सप्तमी- क्रिया का कर्म मौजूद हो तो जिस प्रयोजन को लेकर काम किया जाता है उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-चर्मणि द्विपिनं हन्ति यहाँ कर्म है-'द्विपिनम्' और प्रयोजन है 'चर्मणि' जिसमें सप्तमी विभक्ति लगी है

➲. अध्वनि प्रथमा सप्तम्यौ - यदि व्यवधान या दूरी का बोध होता हो तो मार्ग वाचक शब्द में प्रथमा और सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं। जैसे-आगरा नगरम् दिल्लीत: बहुषु क्रोषेषु बहवः क्रोशाः वा स्थितम् ।

➲. क्तस्येन्विषयस्य कर्मण्युपसंख्यानम् क्त-प्रत्ययान्त शब्दों में यदि 'इन' प्रत्यय लगा रहता है तो इसके योग से कर्म में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-अधीती व्याकरणे ।

➲ साधुनिपुणाभ्याम् अर्चायाम-प्रशंसा रहने पर साधु और निपुण शब्दों के योग में सप्तमी । होती है। जैसे-व्याकरणे साधुः निपुणः वा

थोड़ा हटके 

दोस्तों संस्कृत व्याकरण और हिंदी व्याकरण दो भिन्न ,  लिपि की समानता के कारण  ये एक सामान व्यावहारिक रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं | हालाँकि आप हिंदी परिभाषा का भी बहुत जगह इस्तेमाल होते देखे होंगे, परन्तु वो व्याकरण की दृष्टिकोण से सही नहीं है |

 इसलिए मैंने आपको सारे संस्कृत में परिभाषा भी ,  जिससे आपको संस्कृत में कारक और इसके परिभाषा के साथ साथ इसके भेदो  के भी परिभाषा  को समझने में कोई परेशानी ना हो , और कहि और जाकर आपको इसके लिए खोजना ना पड़े | 

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