बेरोजगारी पर निबंध - Essay on Unemployment in Hindi

भूमिका

बेरोजगारी किसी भी देश का प्रमुख और बहुत जटिल समस्या है, बेरोजगारी के कारण देश कई रूपों से कई मामलों में पीछे चला जाता है।  

संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 और 2018 के बीच भारत में बेरोजगारी में बढ़ोतरी हुई है और इससे रोजगार सृजन में बाधा आने के संकेत है। 

संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILU) ने 2017 में वैश्विक रोजगार एवं सामाजिक दृष्टिकोण पर अपनी रिपोर्ट में बताया कि रोजगार जरूरतों के कारण आर्थिक विकास पिछड़ा प्रतीत हो रहा है। 

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इसमें पूरे 2017 के दौरान बेरोजगारी बढ्ने तथा सामाजिक असमानता की स्थिति के और बिगड़ने की आशंका जताई गई है। वर्ष 2017-18 में भारत में रोजगार सृजन की गतिविधियों के गति पकड़ने की संभावना नहीं दिख रही और बेरोजगारी की दर धीरे-धीरे बढ़ रही है।

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रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल के 1.77 करोड़ बेरोजगारों की तुलना में 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 1.78 करोड़ और उसके अगले साल 1.8 करोड़ हो सकती है। 

प्रतिशत के संदर्भ में 2017-18 में बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत बनी रहेगी। वर्ष 2016 में रोजगार सृजन के संदर्भ में भारत का प्रदर्शन थोड़ा अच्छा था। 

रिपोर्ट में यह भी बताया कि 2016 में भारत की 7.6 प्रतिशत की वृद्धि दर ने पिछले साल के दक्षिण एशिया के लिए 6.8 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करने में मदद की है।


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रिपोर्ट के अनुसार, “विनिर्माण विकास ने भारत के सद्य: आर्थिक प्रदर्शन को आधार मुहैया कराया है, जो क्षेत्र के जिस निर्यातकों के लिए अतिरिक्त मांग बढ़ाने में मदद कर सकता है।"

 रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक बेरोजगारी दर और स्तर अल्पकालिक तौर पर उच्च बने रह सकते हैं, क्योंकि वैश्विक श्रम बल में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। विशेषकर वैश्विक बेरोजगारी दर में 2016 के 5.6% की तुलना में 2017 में 5.8% की मामूली बढ़त की संभावना व्यक्त की है।

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प्रस्तावना

आई.एल.ओ. (ILO) के महानिदेशक गाइ राइडर ने कहा, “इस वक्त हम लोग वैश्विक अर्थव्यवस्था के कारण उत्पन्न क्षति एवं " दोहरी चुनौती का सामना कर रहे हैं।'' 

आई.एल.ओ. (ILO) के वरिष्ठ अर्थशास्त्री और रिपोर्ट के मुख्य लेखक स्टीवेन टॉबिन ने कहा, ‘उभरते देशों में हर दो श्रमिकों में से एक जबकि विकासशील देशों में हर पांच में से चार श्रमिकों को रोजगार की बेहतर स्थितियों की आवश्यकता है।'' 

इस आंकड़े में दक्षिण एशिया एवं उप सहारा अफ्रीकी में और अधिक गिरावट आने का खतरा है। इसके अलावा, विकसित देशों में बेरोजगारी में भी गिरावट आने की संभावना है और यह दर 2016 के 6.3 प्रतिशत से घटकर 6.2% तक हो जाने की संभावना है।

बेरोजगारी की समस्या न केवल भारत बल्कि विकसित देश भी इस समस्या की चपेट में है। एक बार अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा था—“बिना उन्हें रोजगार मिले, जो रोजगार चाहते हैं, समाज के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त किए जाने की बात पर मैं यकीन नहीं कर सकता।" 

बेरोजगारी का अर्थ-कार्य सक्षम होने के बावजूद एक व्यक्ति को उसकी आजीविका के लिए किसी रोजगार का न मिलना। यही साम्यवादी सिद्धांत है कि अपनी योग्यता के अनुसार काम करो तथा अपनी आवयकता के अनुसार खाओ। 

रोजगार के अभाव में व्यक्ति मारा-मारा फिरता है। ऐसे में तमाम तरह के अवसाद उसे घेर लेते हैं, फिर न चाहते हुए भी कई बार ऐसे कदम उठा लेता है, जिनकी कानून इजाजत नहीं देता। 

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) ने बेरोजगारी को इस प्रकार से परिभाषित किया है - "यह वह अवस्था है, जिसमें काम के अभाव में लोग बिना कार्य के रह जाते हैं। ये कार्यरत व्यक्ति नहीं है, किंतु रोजगार कार्यालयों, मध्यस्थों, मित्रों, संबंधियों आदि के माध्यम से या संभावित रोजगारदाताओं को आवेदन देकर या वर्तमान परिस्थितियों और प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य करने की अपनी इच्छा प्रकट कर कार्य तलाशते हैं।'' 

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भारत में बेरोजगारी के आंकड़ों के स्रोत

भारत में बेरोजगारी के आंकड़ों के तीन स्रोत हैं

(1) भारत की जनगणना रिपोर्ट 

(2) राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की रोजगार एवं बेरोजगारी संबंधी रिपोर्ट 

(3) रोजगार और प्रशिक्षण महानिदेशालय के रोजगार कार्यालय में पंजीकृत आंकड़े।

वर्ष 2011-12 के दौरान श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर 3.8% है। देश के विभिन्न राज्यों में गुजरात में बेरोजगारी दर सबसे कम 1%, जबकि दिल्ली एवं महाराष्ट्र में क्रमश: 4.8% एवं 2.8% पाई गई। 

सर्वाधिक बेरोजगारी दर वाले राज्य केरल और पं. बंगाल थे। इस सर्वे के अनुसार, देश की महिलाओं की अनुमानित बेरोजगारी दर 7% थी।

देखा जाए तो बेरोजगारी एक विश्वव्यापी समस्या है। बेरोजगारी भारत में आधुनिक समय में एक सबसे बड़ी समस्या के रूप में में उभर रही हैं। य

ह समस्या जनसंख्या वृद्धि, पूंजी की कमी, उत्पादक व्यवसायों की कमी, आगतों की कमी, शिक्षा की कमी इत्यादि के कारण उत्पन्न होती है। श्रम इसलिए बेरोजगार रहता है क्योंकि पूंजी की कमी बनी रहती है। 


अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी के भिन्न रूप होते हैं :-

1. खुली बेरोजगारी - इससे तात्पर्य उस बेरोजगारी से है, जिसमें व्यक्ति को कोई काम नहीं मिलता। यह सबसे गंभीर समस्या है, इसमें कुशल अथवा अकुशल श्रमिक को बिना काम किए ही रहना पड़ता है। गांवों से शहरों की ओर लोगों का पलायन इसकी मुख्य वजह है।

2. शिक्षित बेरोजगारी - यह खुली बेरोजगारी जैसी ही है, किंतु इसमें थोड़ा-सा अंतर यह है कि व्यक्ति को उसकी शैक्षणिक योग्यता के अनुसार काम नहीं मिलता। उदाहरणार्थ- जैसे बी.ए. पास युवक को मजबूरीवश रिक्शा चलाना पड़े। 

3. घर्षणात्मक बेरोजगारी - बाजार में आए उतार-चढ़ाव या मांग में परिवर्तन जैसी स्थितियों के कारण उत्पन्न बेरोजगारी की अवस्था घर्षणात्मक बेरोजगारी कहलाती है।

4. मौसमी बेरोजगारी- यह मुख्य रूप से कृषि क्षेत्रों में पाई जाती है, इसमें कृषि श्रमिक वर्ष के कुछ महीने कृषि कार्य में संलग्न होते हैं तथा शेष अवधि में बेकार पड़े रहते हैं। भारत में कृषि क्षेत्र में सामान्यतः 7-8 महीने ही काम चलता है, शेष महीनों में कृषि में लगे लोगों को बेरोजगार रहना पड़ता है। ऐसी बेरोजगारी मौसमी बेरोजगारी कहलाती है।

5. शहरी बेरोजगारी- बड़े पैमाने पर शहरीकरण किए जाने के दौरान शहरों में बढ़ती जनसंख्या की तुलना के अवसरों का विस्तार नहीं हो पाता, वहीं गांवों में रोजगार नहीं मिलने के कारण भी लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं, परंतु शहरों में सभी को काम नहीं मिल पाता ऐसी बेरोजगारी 'शहरी बेरोजगारी' कहलाती है।

6. ग्रामीण बेरोजगारी- गांवों के लोग पहले आपस में ही कामों का बंटवारा कर लेते थे। कोई कृषि कार्य में संलग्न रहता था, तो कोई गांव के अन्य कार्यों को संपन्न करता था। गांव से शहरों की ओर पलायन के कारण गांवों की यह व्यवस्था समाप्त हो गई है, जिससे गांव के अधिकतर लोग बेरोजगार हो गए।

7. संरचनात्मक बेरोजगारी - औद्योगिक क्षेत्र में जब संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं, तो इससे कुछ अल्प-दक्ष या अनावश्यक कर्मचारियों की छंटनी के कारण उत्पन्न बेरोजगारी संरचनात्मक बेरोजगारी कहलाती है। इसमें तीव्र प्रतियोगिता के कारण पुराने तकनीक वाले उद्योग बंद होने लगते हैं तथा उनका स्थान नई मशीनें ले लेती हैं। भारत में भी ऐसी बेरोजगारी पाई जाती है।

8. अल्प-रोजगार वाली बेरोजगारी- ऐसे श्रमिक, जिनको कभी-कभी ही काम मिलता है, हमेशा नहीं, इस बेरोजगारी के अंतर्गत आते हैं। बेरोजगारी की इस श्रेणी के अंतर्गत उन श्रमिकों को भी सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें उनकी क्षमता के अनुसार काम नहीं मिलता।

9. छिपी हुई अथवा अदृश्य बेरोजगारी-  ऐसी बेरोजगारी प्रायः कृषि क्षेत्र में दिखाई पड़ती है। खेतों में कुछ ऐसे श्रमिक भी कार्य करते हैं, जिन्हें यदि काम से हटा दिया जाए तो उत्पादन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। इस स्थिति में लोग कार्य करते तो दिखाई पड़ते हैं, पर वास्तव में देखा जाए तो वे बेरोजगार ही होते हैं, क्योंकि उत्पादन में उनकी कोई भागीदारी नहीं होती। इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है। 

प्रच्छन्न बेरोजगारी की धारणा का उल्लेख सर्वप्रथम श्रीमती जॉन रॉबिन्सन ने किया है।

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) ने बेरोजगारी मापने के लिए तीन अवधारणाएं विकसित की हैं -

1. सामान्य बेरोजगारी - इसमें सामान्यतः यह देखा जाता है कि लोग रोजगार में होते हुए, बेरोजगार हैं या श्रम शक्ति से बाहर हैं। इसमें लंबी अवधि के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाता है, अतः यह दीर्घकालिक बेरोजगारी को दर्शाता है। 

2. साप्ताहिक स्थिति बेरोजगारी - इसके अंतर्गत सप्ताह भर अर्थात् पिछले सात दिनों की गतिविधियों का विश्लेषण कर बेरोजगारी की माप प्रस्तुत की जाती है। 

3. दैनिक स्थिति बेरोजगारी- इसमें व्यक्ति की प्रतिदिन की गतिविधियों पर गौर करके बेरोजगारी की माप प्रस्तुत की जाती है। उपरोक्त तीनों अवधारणाओं में दैनिक स्थिति, बेरोजगारी की सर्वोत्तम माप प्रस्तुत करती है। 

यदि कुल बेरोजगारी में युवाओं को देखा जाए, तो वर्ष 1993-94 से 2004-05 की अवधि में ग्रामीण तथा शहरी, दोनों क्षेत्रों में ही बेरोजगारी दर में वृद्धि हुई है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र आर्थिक समृद्धि में बाधक हैं। हमारे देश में बेरोजगारी के कई कारण हैं। 

जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि इसका एक सबसे बड़ा एवं प्रमुख कारण है। बढ़ती जनसंख्या के जीवन-निर्वहन हेतु अधिक रोजगार सृजन की आवश्यकता होती है, ऐसा न होने पर बेरोजगारी में वृद्धि होना स्वाभाविक है। 

भारत में व्यावहारिक के बजाय सैद्धांतिक शिक्षा पर जोर दिया दिया जाता है। फलस्व व्यक्ति के पास उच्च शिक्षा की उपाधि तो होती है, परंतु ना तो वह किसी कार्य में दक्ष हो पाता है और न ही अपना कोई निजी व्यवसाय शुरू कर पाता है। इस तरह, दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली भी बेरोजगारी को बढ़ाने में काफी हद तक जिम्मेदार है। 

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर  लाल नेहरू की ये पंक्तियां भी हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कमियों को प्रमाणित करती हैं- "हमारे देश में हर साल नौ लाख पढ़ें लिखे लोग नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं, जबकि यहां शतांश के लिए भी नौकरियां खाली नहीं होती हैं। हमारे यहां स्नातक के स्थान पर वैज्ञानिकों और तकनीकों विशेषज्ञों की आवश्यकता है।"

पहले अधिकतर ग्रामीण, कुटीर उद्योगों से अपनी आजीविका चलाते थे। ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीतियों के कारण देश में इनका पतन होता चला गया। 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इसके उत्थान के लिए कुछ विशेष प्रयास नहीं किए गए, जिसके दुष्परिणाम स्वरूप गांवों की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई और ग्रामीण बेरोजगारी में वृद्धि हुई। 

औद्योगीकरण की मंद प्रक्रिया के कारण भी तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिए रोजगार उपलब्ध करवाना संभव नहीं हो सका। हमारा देश प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न है, किंतु पूंजी एवं तकनीक के अभाव में हम इनका समुचित उपयोग नहीं कर पाते। 

भारत की बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है, किंतु कृषि के पिछड़ेपन के कारण इस क्षेत्र के लोगों को सालों भर रोजगार नहीं मिल पाता।

बेरोजगारी के कई दुष्परिणाम होते हैं। बेरोजगारी के कारण निर्धनता में वृद्धि होती है तथा भुखमरी की समस्या उत्पन्न हो जाती है। बेरोजगारी के कारण मानसिक अशांति की स्थिति में लोगों के चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध की ओर प्रवृत्त होने की पूरी संभावना रहती है।

 अपराध एवं हिंसा में हो रही वृद्धि का सबसे बड़ा कारण बेरोजगारी ही है। कई बार तो बेरोजगारी की भयावह स्थिति से तंग आकर लोग आत्महत्या भी कर बैठते हैं। 

युवा वर्ग की बेरोजगारी का लाभ उठाकर एक ओर जहां स्वार्थी राजनेता इनका दुरुपयोग करते हैं, वहीं दूसरी ओर धनिक वर्ग भी इनका शोषण करने से नहीं चूकते। ऐसी स्थिति में देश का राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण अत्यंत दूषित हो जाता है।

जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण कर, शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार करते हुए व्यावसायिक एवं व्यावहारिक शिक्षा पर जोर देकर, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर एवं औद्योगिकीकरण द्वारा रोजगार के अधिक अवसर सृजित कर हम बेरोजगारी की समस्या का काफी हद तक समाधान कर सकते हैं। 

महात्मा गांधी ने भी कहा था-“भारत जैसा विकासशील देश लघु एवं कुटीर उद्योगों की अनदेखी कर विकास नहीं कर सकता।"

ग्रामीण क्षेत्र के लिए अनेक रोजगारोन्मुख योजनाएं चलाए जाने के बावजूद बेरोजगारी की समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो रहा है। ऐसी स्थिति के कई कारण हैं। 

कभी-कभी योजनाओं को तैयार करने की दोषपूर्ण प्रक्रिया के कारण इनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं कर पाता या ग्रामीणों के अनुकूल नहीं हो पाने के कारण भी कई बार ये योजनाएं कारगर साबित नहीं हो पातीं। 

प्रशासनिक खामियों के कारण भी योजनाएं या तो ठीक ढंग से क्रियान्वित नहीं होतीं या ये इतनी देर से प्रारंभ होती हैं कि इनका पूरा-पूरा लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पाता। 

इसके अतिरिक्त भ्रष्ट शासनतंत्र के कारण जनता तक पहुंचने से पहले ही योजनाओं के लिए निर्धारित राशि में से दो-तिहाई तक बिचौलिए खा जाते हैं। फलतः योजनाएं या तो कागज तक सीमित रह जाती हैं या फिर पूर्णत: निरर्थक साबित होती है। 


बेरोजगारी एक अभिशाप है। इसके कारण देश की आर्थिक वृद्धि बाधित होती है। समाज में अपराध, आंदोलन एवं हिंसा में वृद्धि होती है और सबसे बुरी बात तो यह है कि बेरोजगार व्यक्ति को अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहते हुए अपने सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं हो सकता, क्योंकि सच्चाई यही है कि सार्वजनिक ही नहीं निजी क्षेत्र के उद्यमों की सहायता से भी हर व्यक्ति को रोजगार देना किसी भी देश की सरकार के लिए संभव नहीं। 

अतः लोगों को नौकरियों की तलाश से हटकर अपना कारोबार आरंभ करने की ओर प्रवृत्त होना चाहिए तथा सरकार द्वारा बैंकों के माध्यम से कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना चाहिए तथा सरकारी अनुदान सहित प्रोत्साहन की व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान केंद्रीय सरकार इस दिशा में अनेक योजनाएं लाई है।

बेरोजगारी की समस्या का समाधान तब ही संभव है, जब व्यावहारिक एवं व्यावसायिक रोजगारोन्मुखी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर लोगों को स्व-रोजगार अर्थात् निजी उद्यम एवं व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए प्रेरित किया जाए। 

आज देश की जनता को अपने पूर्व राष्ट्रपति श्री वराहगिरी वेंकटगिरि की कही बात-"प्रत्येक घर एक कुटीर उद्योग है और भूमि की प्रत्येक एकड़ एक चारागाह।" से शिक्षा लेकर बेरोजगारी रूपी दैत्य का नाश कर देना चाहिए। 

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